भक्त ध्रुव राजा उत्तनपाद के पुत्र हैं, भागवती भाषा में उत्तानपाद का अर्थ जीव से है । वह जीव जिसे दो पत्नियाँ है, एक सुरुचि दूसरी शुनीति । सुरुचि का अर्थ भोग से है, जिसकी इच्छाएँ कभी समाप्त न हों, वह स्वयं को सबसे ऊँचा समझे वही सुरुचि है । जो भक्ति, ज्ञान और धर्म में तत्पर है वही शुनीति है । इसी प्रकार जीव को भी दो पत्नियाँ हैं, मन और बुद्धी। यदि मन सात्विक है तो वह आपको बुरा कार्य करने से रोकेगा। परन्तु बुद्धी ज़िद कर के आपसे बुरा कार्य कराने को प्रेरित करेगी । अब जीत यहाँ उसी की है जिसकी पकड़ मजबूत है । चोर का मन भी उसे समझाता है; तू चोरी न कर पकड़ जायेगा यह काम गलत है । पर बुद्धि कहती है नहीं- नहीं चल कोई नहीं पकड़ेगा मैं तुझे सतर्क करूँगी । सोच यदि तू अपने कार्य में सफल होगया तो ते वह सारी आवश्यकताएं पूरी हो जाएगी जिससे तू पिड़ित है । दोनों स्वयं को सत्य कहतीं हैं पर जीव में जिसका अधिकार ज्यादा होगा वह उसी का अनुशरण करता है ।
रानी सुरुचि के कहने पर राजा उत्तानपाद ने बड़ी रानी शुनीति को वन में जाने का आदेश दिया । रानी शुनीति उस समय गर्भावथा में होकर भी अपने पती के वचनों का स्वीकार किया और वन में अपना समय व्यतीत करने लगी । समय पूरा होने पर पुत्र हुआ जिसका लालन पालन वो करतीं, एक दिन पुत्र ध्रुव ने माँ से बोला; माँ मेरे पिता कौन हैं । माँ ने बताया पुत्र, यहाँ के जो राजा हैं वही तुम्हारे पिता हैं । बस यह सुनते ही ध्रुव राज महल पहुँचा और सभा में जाकर अपने पिता से बोला; मेरी माँ का नाम शुनीति है और वो कहती हैं की आप ही मेरे पिता हैं । ध्रुव की बात सुन पिता ने ध्रुव को अपने ह्रदय से लगा लिया और प्रेमवस हो ध्रुव को अपनी गोद में बैठा लिया ।
परन्तु जब सुरुचि ने सुना की राजा ने ध्रुव को अपनी गोद में बैठाया है; वह राजा के पास पहुँची और ध्रुव को नीचे उतार कर अपने पुत्र उत्तम को वहाँ बैठा दिया, और बोली; बालक तुम वन के राजा हो तुम्हारे भाग्य में जो है वह तुम्हें प्राप्त है और यदि तुम अपने पिता की गोद में बैठना है तो जाओ वन में जाकर तप करो । कठोर तप से जब भगवान नारायण प्रसन्न हो तुमसे वर मांगने को कहें तो तुम उन्हें कहना की मुझे माता सुरुचि के कोख से जन्म मिले । इस प्रकार जब तुम मेरे द्वारा जन्म लोगे तब तुम अपने इस पिता की गोद में बैठने का अधिकार प्राप्त करोगे ।
ध्रुव रोता हुआ अपनी माँ के पास आया और अपनी छोटी माँ द्वारा कही सारी बात बताया । माँ ने अपने पुत्र ध्रुव के मनोदशा को जानकर समझाया । ध्रुव; तुम्हारी छोटी माँ ने तुमसे जो भी कहा वह सत्य है तुम्हे तप करना चाहिए। तुम्हे पता है तुम्हारे पिता के पिता कौन हैं ? "श्रीहरि" समस्त ब्रह्माण्ड के जनक हैं, यह पिता तो संसारिक हैं इनसे तुम्हें संसारिक सुख के सिवा और कुछ नहीं मिल सकता यदि तुम्हें बैठना है तो उनकी गोद में बैठो जिनकी गोद में सारा जगत खेलता है । माँ की यह ज्ञान भरी बात सुन बालक ध्रुव ने संकल्प लिया कि मैं अब तप करुँगा और रात्रि में ही घर का त्याग कर तप करने चले गये ।
जीव की पत्नी यदि शुनीति है अर्थात वैद्यिक नीतियों पर चलने वाली तो उसे ध्रुव की प्राप्ती होगी । ध्रुव का अर्थ है "अटल विश्वास" जिस विश्वास के द्वारा जीव का कल्याण होता है । परन्तु जिसकी पत्नी सुरुचि है उसे उत्तम नाम का पुत्र होता है अर्थात जीव की रुची उत्त्मोत्तम बढने लग जाती है । भोग विलास में वह लिप्त रहता है ।
ध्रुव ने छ: माह का कठोर तप किया श्रीहरि प्रकट हो बोले; उठो पुत्र जागो। जब भगवान ने ध्रुव के कपोल पर अपना शंख स्पर्स कराया ध्रुव वेद के धनी हो गये । भगवान बोले क्या कामना है तुम्हारी। ध्रुव ने कहा प्रभु वह मैं कैसे कहुँ आप सब जानने वाले हैं जो उचित हो वही करें । भगवान ध्रुव को हजार वर्ष के लिए राजा होने का वरदान दिया और अन्तरध्यान हो गये जब ध्रुव को ज्ञात हुआ की उसने वह कार्य किया जैसे राजा ने किसी किसान पर खुस हो कहे वर्दान मागो क्या चाहते हो और वह राजा से गाड़ी भूसा मागले । निरास हो ध्रुव जब पहले महल में जाकर अपनी छोटी माँ से मिले तो उस माँ ने उसे गले से लगा लिया ।
बात यह है की जब हम दु:खी होते हैं अपने भाग्य से तब दूसरे तो क्या अपने भी सहयोग नहीं देते । पर जब हम अपने कर्म से अपना भाग्य बदल लेते हैं और सुखी हो जाते हैं तब दुस्मन भी दोस्त हो जाते हैं । एक दिन आखेट में गये उत्तम की मृत्यु हो जाती है । कारण यह है कि जब जीव को शुनीति और ध्रुव प्राप्त होते हैं तब उत्तम अर्थात ऊँची इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं । इस प्रकार जब उत्तम मरता है तब सुरुचि भी जीव का साथ छोड़ वन में जाकर प्राण त्याग देती है ।
इसलिए जीव को वैद्यिक नीतियों पर चलना चाहिए जिससे उसे ध्रुव की प्राप्ती हो और जब ध्रुव मिला तो सद्गती सम्भव है ।
॥ ॐ शान्ति ॐ शान्ति ॥
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