भक्तों में भरत जी का एक अपना स्थान हैं, भरत ऋषभदेव के बड़े पुत्र हैं । ऋषभ जी अपने ज्येष्ठ पुत्र का राज तिलक कर वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करते हैं। यहाँ कुछ वर्षों तक राज्य का पालन कर राजा भरत भी वन में समय व्यतीत करने का निर्णय लेते हैं । अपना राज-पाठ अपने छोटे भाई को सौंप राजा वन में आजाते हैं। नर्मदा नदी के तट पर एक कुटी बना कर रहते और तप करते ।
हमारा मन कभी-कभी इतना सात्विक और वैराग्य से सरावोर हो जात है, तब उस समय मन मेम आता है कि वन में चले जायें या किसी तीर्थ में जाकर समय व्यतीत करने लगें । परन्तु उस समय हमारा मोह जो परिवार के लिए समर्पित होता है वह रोकलेता है और हम पुन: अपने संसार में व्यस्त हो जाते हैं ।
एक दिन भरत जी प्रात: स्नान कर भगवान सूर्य को अर्घ दे रहे थे उसी समय मादा हिरण जो की गर्भणी थी, उसके पीछे एक सिंह था जिससे डरके मादा हिरणी ने नदी में छलांग लगा दिया । उस समय हिरणी ने एक सावक को जन्म देकर अपने प्राण त्याग दिये । बहते हुये सावक को देख भरत जी उस सावक को पकड़ कर सुरक्षित अपनी कुटि में ले आये ।
उस सावक का देख-रेख भरत जी करने लगे, अब मन उनका बस में नहीं उस सावक की सुरक्षा में रमने लगा । अब तो भजन भी कम हो गया क्योंकि कुछ समय अब उस सावक पर लुटाने लगे । बात यही है की, मन बड़ा चंचल है। आये थे हरि भजन को औटन लगे कपास। हम अपने कर्तव्य मार्ग योग मार्ग में जब अड़चनें आती तब हम उन्हें समझ नहीं पाते, ठीक किसी जीव की सहायता करना पर उसे अपने मन में बसा लेना तो गलत है । मन में तो मात्र मदनमोहन ही होना चाहिये, पर हम अपने मन कितनों की पीड़ायें उनका स्नेह छिपाये बैठे हैं ।
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