गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

जड़भरत​ जी



भक्तों में भरत जी का एक अपना स्थान हैं, भरत ऋषभदेव के बड़े पुत्र हैं । ऋषभ जी अपने ज्येष्ठ पुत्र का राज तिलक कर वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करते हैं। यहाँ कुछ वर्षों तक राज्य का पालन कर राजा भरत भी वन में समय व्यतीत करने का निर्णय लेते हैं । अपना राज​-पाठ अपने छोटे भाई को सौंप राजा वन में आजाते हैं। नर्मदा नदी के तट पर एक कुटी बना कर रहते और तप करते ।

हमारा मन कभी-कभी इतना सात्विक और वैराग्य से सरावोर हो जात है, तब उस समय मन मेम आता है कि वन में चले जायें या किसी तीर्थ में जाकर समय व्यतीत करने लगें । परन्तु उस समय हमारा मोह जो परिवार के लिए समर्पित होता है वह रोकलेता है और हम पुन: अपने संसार में व्यस्त हो जाते हैं ।

एक दिन भरत जी प्रात​: स्नान कर भगवान सूर्य को अर्घ दे रहे थे उसी समय मादा हिरण जो की गर्भणी थी, उसके पीछे एक सिंह था जिससे डरके मादा हिरणी ने नदी में छलांग लगा दिया । उस समय हिरणी ने एक सावक को जन्म देकर अपने प्राण त्याग दिये । बहते हुये सावक को देख भरत जी उस सावक को पकड़ कर सुरक्षित अपनी कुटि में ले आये ।
उस सावक का देख-रेख भरत जी करने लगे, अब मन उनका बस में नहीं उस सावक की सुरक्षा में रमने लगा । अब तो भजन भी कम हो गया क्योंकि कुछ समय अब उस सावक पर लुटाने लगे । बात यही है की, मन बड़ा चंचल है। आये थे हरि भजन को औटन लगे कपास। हम अपने कर्तव्य मार्ग योग मार्ग में जब अड़चनें आती तब हम उन्हें समझ नहीं पाते, ठीक किसी जीव की सहायता करना पर उसे अपने मन में बसा लेना तो गलत है । मन में तो मात्र मदनमोहन ही होना चाहिये, पर हम अपने मन कितनों की पीड़ायें उनका स्नेह छिपाये बैठे हैं ।

बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

भक्त ध्रुव​


भक्त ध्रुव राजा उत्तनपाद के पुत्र हैं, भागवती भाषा में उत्तानपाद का अर्थ जीव से है । वह जीव जिसे दो पत्नियाँ है, एक सुरुचि दूसरी शुनीति । सुरुचि का अर्थ भोग से है, जिसकी इच्छाएँ कभी समाप्त न हों, वह स्वयं को सबसे ऊँचा समझे वही सुरुचि है । जो भक्ति, ज्ञान और धर्म में तत्पर है वही शुनीति है । इसी प्रकार जीव को भी दो पत्नियाँ हैं, मन और बुद्धी। यदि मन सात्विक है तो वह आपको बुरा कार्य करने से रोकेगा। परन्तु बुद्धी ज़िद कर के आपसे बुरा कार्य कराने को प्रेरित करेगी । अब जीत यहाँ उसी की है जिसकी पकड़ मजबूत है । चोर का मन भी उसे समझाता है; तू चोरी न कर पकड़ जायेगा यह काम गलत है । पर बुद्धि कहती है नहीं- नहीं चल कोई नहीं पकड़ेगा मैं तुझे सतर्क करूँगी । सोच यदि तू अपने कार्य में सफल होगया तो ते वह सारी आवश्यकताएं पूरी हो जाएगी जिससे तू पिड़ित है । दोनों स्वयं को सत्य कहतीं हैं पर जीव में जिसका अधिकार ज्यादा होगा वह उसी का अनुशरण करता है ।

रानी सुरुचि के कहने पर राजा उत्तानपाद ने बड़ी रानी शुनीति को वन में जाने का आदेश दिया । रानी शुनीति उस समय गर्भावथा में होकर भी अपने पती के वचनों का स्वीकार किया और वन में अपना समय व्यतीत करने लगी । समय पूरा होने पर पुत्र हुआ जिसका लालन पालन वो करतीं, एक दिन पुत्र ध्रुव ने माँ से बोला; माँ मेरे पिता कौन हैं । माँ ने बताया पुत्र, यहाँ के जो राजा हैं वही तुम्हारे पिता हैं । बस यह  सुनते ही  ध्रुव राज  महल पहुँचा और सभा में जाकर अपने पिता से बोला; मेरी माँ का नाम शुनीति है और वो कहती हैं की आप ही मेरे पिता हैं । ध्रुव की बात सुन पिता ने ध्रुव को अपने ह्रदय से लगा लिया और प्रेमवस हो ध्रुव को अपनी गोद में बैठा लिया ।

परन्तु जब सुरुचि ने सुना की राजा ने ध्रुव को अपनी गोद में बैठाया है; वह राजा के पास पहुँची और ध्रुव को नीचे उतार कर अपने पुत्र उत्तम को वहाँ बैठा दिया, और बोली; बालक तुम वन के राजा हो तुम्हारे भाग्य में जो है वह तुम्हें प्राप्त है और यदि तुम अपने पिता की गोद में बैठना है तो जाओ वन में जाकर तप करो । कठोर तप से जब भगवान नारायण प्रसन्न हो तुमसे वर मांगने को कहें तो तुम उन्हें कहना की मुझे माता सुरुचि के कोख से जन्म मिले । इस प्रकार जब तुम मेरे द्वारा जन्म लोगे तब तुम अपने इस पिता की गोद में बैठने का अधिकार प्राप्त करोगे ।

ध्रुव रोता हुआ अपनी माँ के पास आया और अपनी छोटी माँ द्वारा कही सारी बात बताया । माँ ने अपने पुत्र ध्रुव के मनोदशा को जानकर समझाया । ध्रुव; तुम्हारी छोटी माँ ने तुमसे जो भी कहा वह सत्य है तुम्हे तप करना चाहिए। तुम्हे पता है तुम्हारे पिता के पिता कौन हैं ? "श्रीहरि" समस्त ब्रह्माण्ड के  जनक हैं, यह पिता तो संसारिक हैं इनसे तुम्हें संसारिक सुख के सिवा और कुछ नहीं मिल सकता यदि तुम्हें बैठना है तो उनकी गोद में बैठो जिनकी गोद में सारा जगत खेलता है । माँ की यह ज्ञान भरी बात सुन बालक ध्रुव ने संकल्प लिया कि मैं अब तप करुँगा और रात्रि में ही घर का त्याग कर तप करने चले गये ।

जीव की पत्नी यदि शुनीति है अर्थात वैद्यिक नीतियों पर चलने वाली तो उसे ध्रुव की प्राप्ती होगी । ध्रुव का अर्थ है "अटल विश्वास" जिस विश्वास के द्वारा जीव का कल्याण होता है । परन्तु जिसकी पत्नी सुरुचि है उसे उत्तम नाम का पुत्र होता है अर्थात जीव की रुची उत्त्मोत्तम बढने लग जाती है । भोग विलास में वह लिप्त रहता है ।

ध्रुव ने छ​: माह का कठोर तप किया श्रीहरि प्रकट हो बोले; उठो पुत्र जागो। जब भगवान ने ध्रुव के कपोल पर अपना शंख स्पर्स कराया ध्रुव वेद के धनी हो गये । भगवान बोले क्या कामना है तुम्हारी। ध्रुव ने कहा प्रभु वह मैं कैसे कहुँ आप सब जानने वाले हैं जो उचित हो वही करें । भगवान ध्रुव को हजार वर्ष के लिए राजा होने का वरदान दिया और अन्तरध्यान हो गये जब ध्रुव को ज्ञात हुआ की उसने वह कार्य किया जैसे राजा ने किसी किसान पर खुस हो कहे वर्दान मागो क्या चाहते हो और वह राजा से गाड़ी भूसा मागले । निरास हो ध्रुव जब पहले महल में जाकर अपनी छोटी माँ से मिले तो उस माँ ने उसे गले से लगा लिया ।

बात यह है की जब हम दु:खी होते हैं अपने भाग्य से तब दूसरे तो क्या अपने भी सहयोग नहीं देते । पर जब हम अपने कर्म से अपना भाग्य बदल लेते हैं और सुखी हो जाते हैं तब दुस्मन भी दोस्त हो जाते हैं । एक दिन आखेट में गये उत्तम की मृत्यु हो जाती है । कारण यह है कि जब जीव को शुनीति और ध्रुव प्राप्त होते हैं तब उत्तम अर्थात ऊँची इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं । इस प्रकार जब उत्तम मरता है तब सुरुचि भी जीव का साथ छोड़ वन में जाकर प्राण त्याग देती है । 

इसलिए जीव को वैद्यिक नीतियों पर चलना चाहिए जिससे उसे ध्रुव की प्राप्ती हो और जब ध्रुव मिला तो सद्गती सम्भव है ।
॥ ॐ शान्ति ॐ शान्ति ॥
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भक्त प्रह्लाद​


भक्त प्रह्लाद को कौन नहीं जानता, प्रह्लाद निश्काम भक्तों की श्रेणी में आते हैं । निश्काम का अर्थ है- स्वयं के हित की भी कामना न रखना । मात्र लोक हित में परमारथ ही राह पर चलना। हमें इस दिव्य भक्त कथा रस से बहुत सी प्रेरक शिक्षाएँ प्राप्त होती हैं । विज्ञान कहता है की माँ के गर्भ में स्थापित शिशु के बुद्धी विकास में माँ का पूर्ण योगदान होता है, माँ के जैसे विचार होंगे शिशु का विकास उसी स्तर में होता है । जैसा की कथा में बताया गया है कि महान दैत्य हिरण्यकशिपु की पत्नी जब गर्भावस्था में थीं उस समय देव ऋषी नारद जी कयाधु को अपने आश्रम लेके आये और उसका देख रेख आश्रम में वैद्यिक रूप से किया जाने लगा । 

आश्रम में चारो ओर शान्ति, पक्षियों का कलरव​, वनस्पतियों की महक, वेदों की ध्वनि, मंत्रों के मधुर स्वर से आश्रम का पूरा वातावरण पवित्र था । कयाधु नित्य ही भगवत कथा का रस पान किया करती, स्वयं भगवान के भजनों को गुन-गुनाया करती । कयाधु का पूरा समय हरि संकीर्तन भगवत भजन में ही व्यतीत हुआ करता था। यही कारण है की कयाधु के गर्भ में पल रहा शिशु भक्त हुआ । इस पुत्र से पहले भी कयाधु को चार पुत्र थे परन्तु उनका जन्म महल में ही हुआ था, ऐसी स्थिती तब नहीं बनी थी जिस कारण ये चार पुत्र दानव प्रवत्ती के हुये ।

आज के आधुनिक युग की भी यही समस्या है, अब समय पहले जैसा नहीं रहा, नारी को सब तरह का अधिकार दिया जा रहा है। आज लोग भविष्य का नहीं वर्तमान का देखते हैं, अच्छा है। पर यदि आप वर्तमान का सम्मान नहीं करेंगे, समय का उचित उपयोग नहीं करंगे तो आपका भविष्य बिगड़ जायेगा। यदि आप भविष्य को देखते हुए वर्तमान में सात्विक जीवन को अपनाते हैं तो अवश्य ही आपका भविष्य उज्वल होगा । गर्भावस्था में आज की महिलाएँ मद्य पान और मांस जो कि अखाद्य है का सेवन कर शिशु के वर्तमान का विचार न कर उसका भविष्य भी दूषित कर देती हैं ।

गर्भावस्था के समय मन की शान्ती, सात्विक भोजन और सद्विचार आदि का पालन तो कर ही सकते हैं, आज के व्यस्तता से भरे जीवन में यदि माता पिता अपने शिशु का ध्यान गर्भसमय से ही रखते हैं तो अवश्य ही आपका बालक बुद्धजीवी होगा ।  पुरानी कहावत है:- जैसा खाओ अन्न, वैसा होवे मन​। गर्भावस्था मेम शिशु के मन का तार माँ से जुड़ा होता है। माँ के विचार जिस प्रकार से होंगे, शिशु का मन उसी विचारों से पुष्ट होता जायेगा । जन्म के बाद वह शिशु जब दो से तीन वर्ष में होता है उस समय गर्भ में प्राप्त विचार पुष्ट हो बच्चे को प्रभावित करते हैं । इसलिए माँ का अपना कर्तव्य है कि वह अपने साथ-साथ शिशु का विशेष ध्यान रखे । अपने इस समय को सारणीबद्ध तरीके से खान​-पान, रहन​-सहन से अपने शिशु का विकास करें।

नारद जी के आश्रम में ही भक्त प्रह्लाद का जन्म हुआ । वहाँ ऋषियों, संतो का संग पाकर प्रह्लाद के मन से वह
सारी इच्छाएँ समाप्त हो ग​ई जिनके लिए हम अपना पूरा जीवन समाप्त कर स्वयं समाप्त हो जाते हैं। और जिस भक्त के गुरु स्वयं नारद जी हों भला उसका अहित कौन कर सकता है ।  पिता हिरण्यकशिपु ने अपने छोटे पुत्र को बहुत समझाया की वह हरि भक्ती का त्याग करदे पर पुत्र अपने संकल्प में स्थिर रहा । यही बात है की जो माता-पिता अपने गर्भावस्था के समय किसी भी तरह का व्यसन करते हैं, संतान उसी मार्ग का अनुशरण करता है, फिर पिता भले ही यह कहते कहते मृत्यु को प्राप्त हो जाये की बेटा शराब पीना बुरी बात है । तब वह किसी की नहीं अपने मन की सुनता है, जो पहले से ही माता-पिता ने दूषित कर दिया था। जिस प्रकार भक्ती के मार्ग में बहुत सी विपत्तियाँ प्रह्लाद को सहनी पड़ीं, उसी प्रकार आपके पुत्र को  असत्य के मार्ग में ठोकर (अपयस) ही मिलता है । 

जब भक्त प्रह्लाद के पिता ने पूँछा बता तेरा नारायण कहाँ है। तब प्रह्लाद जी ने बताया- पिताजी आप यह
पूछिये की वह कहाँ नहीं हैं अर्थात वे सर्वत्र और सर्वदा व्याप्त हैं । मुझमें तुममें खडग खम्भ में कहाँ नहीं हैं राम। एक निश्काम भक्त के पुकारने पर भगवान नृसिंह प्रकट हुए और हिरण्यकशिपु का उद्धार किया । भगवान ने प्रह्लाद से कहा पुत्र बोलो तुम्हे क्या चाहिए, मैं तेरी हर मनोकामना पूर्ण करूँगा । भक्त ने कहा प्रभू क्या मांगू मैं आपसे आपने मुझे पहले से धनी बना दिया मैं भजन का धनी हूँ जो इस संसार का है वह यहीं मिलता है और वह यहीं रह जाता है, जो साथ जाता है, वह आपका नाम है मुझे आपका स्मरण सदैव बना रहे यही मेरी इच्छा है। और मैं जानता हूँ यदि आप मुझे कुछ देना चाहते हैं तो अवश्य मेरे अन्दर कोई कामना होगी जिसे मैं नहीं जानता, पर आप घट​-घट को जानने वाले हैं, मैं बस यही चाहता हूँ की मेरे पिता का पतन न हो, आप उनका कल्याण करें । 

अपने भक्त के निश्कामना को देख भगवान की आखें नम हो ग​ई, बोले- पुत्र सचमुच वह पिता बड़भागी है जिसको तुम्हारे जैसा पुत्र है । सही मायने में वही संतान पुत्र कहलाने के योग्य हैं जो अपने माता-पिता की मुक्ती, उनके कल्याण, उनके हित का कार्य करता है । पुन्नाम नरका त्रायते इति पुत्र​: ॥ जो संतान अपने पूर्वजों को पुन नाम के नरक से मुक्त कराता है वही पुत्र है । तुम धन्य हो पुत्र । तुम धन्य हो..

हमारा वैद्यिक धर्म, संस्कारित व शिक्षित करता है, हम अपने जीवन को शिक्षित बनाएं वैद्यिक धर्म का पालन करें तभी हम जीवों का कल्याण होगा। 
॥ॐ शान्ति ॐ शान्ति॥
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