भक्त प्रह्लाद को कौन नहीं जानता, प्रह्लाद निश्काम भक्तों की श्रेणी में आते हैं । निश्काम का अर्थ है- स्वयं के हित की भी कामना न रखना । मात्र लोक हित में परमारथ ही राह पर चलना। हमें इस दिव्य भक्त कथा रस से बहुत सी प्रेरक शिक्षाएँ प्राप्त होती हैं । विज्ञान कहता है की माँ के गर्भ में स्थापित शिशु के बुद्धी विकास में माँ का पूर्ण योगदान होता है, माँ के जैसे विचार होंगे शिशु का विकास उसी स्तर में होता है । जैसा की कथा में बताया गया है कि महान दैत्य हिरण्यकशिपु की पत्नी जब गर्भावस्था में थीं उस समय देव ऋषी नारद जी कयाधु को अपने आश्रम लेके आये और उसका देख रेख आश्रम में वैद्यिक रूप से किया जाने लगा ।

आश्रम में चारो ओर शान्ति, पक्षियों का कलरव, वनस्पतियों की महक, वेदों की ध्वनि, मंत्रों के मधुर स्वर से आश्रम का पूरा वातावरण पवित्र था । कयाधु नित्य ही भगवत कथा का रस पान किया करती, स्वयं भगवान के भजनों को गुन-गुनाया करती । कयाधु का पूरा समय हरि संकीर्तन भगवत भजन में ही व्यतीत हुआ करता था। यही कारण है की कयाधु के गर्भ में पल रहा शिशु भक्त हुआ । इस पुत्र से पहले भी कयाधु को चार पुत्र थे परन्तु उनका जन्म महल में ही हुआ था, ऐसी स्थिती तब नहीं बनी थी जिस कारण ये चार पुत्र दानव प्रवत्ती के हुये ।
आज के आधुनिक युग की भी यही समस्या है, अब समय पहले जैसा नहीं रहा, नारी को सब तरह का अधिकार दिया जा रहा है। आज लोग भविष्य का नहीं वर्तमान का देखते हैं, अच्छा है। पर यदि आप वर्तमान का सम्मान नहीं करेंगे, समय का उचित उपयोग नहीं करंगे तो आपका भविष्य बिगड़ जायेगा। यदि आप भविष्य को देखते हुए वर्तमान में सात्विक जीवन को अपनाते हैं तो अवश्य ही आपका भविष्य उज्वल होगा । गर्भावस्था में आज की महिलाएँ मद्य पान और मांस जो कि अखाद्य है का सेवन कर शिशु के वर्तमान का विचार न कर उसका भविष्य भी दूषित कर देती हैं ।
गर्भावस्था के समय मन की शान्ती, सात्विक भोजन और सद्विचार आदि का पालन तो कर ही सकते हैं, आज के व्यस्तता से भरे जीवन में यदि माता पिता अपने शिशु का ध्यान गर्भसमय से ही रखते हैं तो अवश्य ही आपका बालक बुद्धजीवी होगा । पुरानी कहावत है:- जैसा खाओ अन्न, वैसा होवे मन। गर्भावस्था मेम शिशु के मन का तार माँ से जुड़ा होता है। माँ के विचार जिस प्रकार से होंगे, शिशु का मन उसी विचारों से पुष्ट होता जायेगा । जन्म के बाद वह शिशु जब दो से तीन वर्ष में होता है उस समय गर्भ में प्राप्त विचार पुष्ट हो बच्चे को प्रभावित करते हैं । इसलिए माँ का अपना कर्तव्य है कि वह अपने साथ-साथ शिशु का विशेष ध्यान रखे । अपने इस समय को सारणीबद्ध तरीके से खान-पान, रहन-सहन से अपने शिशु का विकास करें।
नारद जी के आश्रम में ही भक्त प्रह्लाद का जन्म हुआ । वहाँ ऋषियों, संतो का संग पाकर प्रह्लाद के मन से वह
सारी इच्छाएँ समाप्त हो गई जिनके लिए हम अपना पूरा जीवन समाप्त कर स्वयं समाप्त हो जाते हैं। और जिस भक्त के गुरु स्वयं नारद जी हों भला उसका अहित कौन कर सकता है । पिता हिरण्यकशिपु ने अपने छोटे पुत्र को बहुत समझाया की वह हरि भक्ती का त्याग करदे पर पुत्र अपने संकल्प में स्थिर रहा । यही बात है की जो माता-पिता अपने गर्भावस्था के समय किसी भी तरह का व्यसन करते हैं, संतान उसी मार्ग का अनुशरण करता है, फिर पिता भले ही यह कहते कहते मृत्यु को प्राप्त हो जाये की बेटा शराब पीना बुरी बात है । तब वह किसी की नहीं अपने मन की सुनता है, जो पहले से ही माता-पिता ने दूषित कर दिया था। जिस प्रकार भक्ती के मार्ग में बहुत सी विपत्तियाँ प्रह्लाद को सहनी पड़ीं, उसी प्रकार आपके पुत्र को असत्य के मार्ग में ठोकर (अपयस) ही मिलता है ।
जब भक्त प्रह्लाद के पिता ने पूँछा बता तेरा नारायण कहाँ है। तब प्रह्लाद जी ने बताया- पिताजी आप यह
पूछिये की वह कहाँ नहीं हैं अर्थात वे सर्वत्र और सर्वदा व्याप्त हैं । मुझमें तुममें खडग खम्भ में कहाँ नहीं हैं राम। एक निश्काम भक्त के पुकारने पर भगवान नृसिंह प्रकट हुए और हिरण्यकशिपु का उद्धार किया । भगवान ने प्रह्लाद से कहा पुत्र बोलो तुम्हे क्या चाहिए, मैं तेरी हर मनोकामना पूर्ण करूँगा । भक्त ने कहा प्रभू क्या मांगू मैं आपसे आपने मुझे पहले से धनी बना दिया मैं भजन का धनी हूँ जो इस संसार का है वह यहीं मिलता है और वह यहीं रह जाता है, जो साथ जाता है, वह आपका नाम है मुझे आपका स्मरण सदैव बना रहे यही मेरी इच्छा है। और मैं जानता हूँ यदि आप मुझे कुछ देना चाहते हैं तो अवश्य मेरे अन्दर कोई कामना होगी जिसे मैं नहीं जानता, पर आप घट-घट को जानने वाले हैं, मैं बस यही चाहता हूँ की मेरे पिता का पतन न हो, आप उनका कल्याण करें ।
अपने भक्त के निश्कामना को देख भगवान की आखें नम हो गई, बोले- पुत्र सचमुच वह पिता बड़भागी है जिसको तुम्हारे जैसा पुत्र है । सही मायने में वही संतान पुत्र कहलाने के योग्य हैं जो अपने माता-पिता की मुक्ती, उनके कल्याण, उनके हित का कार्य करता है । पुन्नाम नरका त्रायते इति पुत्र: ॥ जो संतान अपने पूर्वजों को पुन नाम के नरक से मुक्त कराता है वही पुत्र है । तुम धन्य हो पुत्र । तुम धन्य हो..
हमारा वैद्यिक धर्म, संस्कारित व शिक्षित करता है, हम अपने जीवन को शिक्षित बनाएं वैद्यिक धर्म का पालन करें तभी हम जीवों का कल्याण होगा।
॥ॐ शान्ति ॐ शान्ति॥
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