बुधवार, 6 मई 2015

भक्त अंबरीष​

राज​ऋषी अंबरीष सूर्य वंशी राजा नाभाग के प्रतापी पुत्र थे। वे बड़े बीर, बुद्धिमान व तपस्वी राजा थे। वे जानते थे कि जिस धन-वैभव के लोभ में पड़कर प्राणी घोर नरक में जाते हैं वह कुछ ही दिनों का सुख है, इसलिए उनका मन सदैव भगवत भक्ति व दीनों की सेवा में लगा रहता था। राजा बाल्यावस्था से ही एकादशी का व्रत बड़ी श्रद्धा से करते, वे भगवान विष्णु के दिव्य भक्तों में से एक माने जाते हैं, भगवान विष्णुजी ने सुदर्श चक्र को राजा अंबरीष की रक्षा हेतु नियुक्त कर दिया। जिस कारण कोई भी शत्रू इनका विरोध या आक्रमण करने का सोचता भी नहीं था, इनक पूरा राज्य भी प्रभू भक्ती में लीन था ।

एक बार अंबरीष ने अपनी पत्नी के साथ निर्जला (भीमसेनी) एकादशी के व्रत का संकल्प लिया, उन्होंने प्रात​: स्नान कर सूर्याघ्य दिया, भगवान विष्णु का पूजन किया और ब्राह्मणों को अन्न-धन का भरपूर दान दिया।तभी वहाँ दुर्वासा ऋषि का आगमन हो गया। वे परम तपस्वी व अलौकिक शक्तियों से युक्त थे किंतु क्रोधी स्वभाव के कारण उनकी सेवा-सुश्रुसा में विशेष सावधानी अपेक्षित थी। ये वही दुर्वासा ऋषी हैं जो एक बार क्षीर सागर भगवान विष्णु के दर्शन के लिए पहुँचे परन्तु जब भगवान विष्णु अपनी पत्नी लक्ष्मीजी द्वारा चरण सेवा में आनंदित थे तब यह देख दुर्वासा ऋषी क्रोधित हो भगवान के वक्ष पर लात मार दिया था ।

राजा अंबरीष को जब यह जानकारी मिली कि आज​ द्वादशी के दिन​ दुर्वासा ऋषी पधारे हैं, तो उनके स्वागत के लिए पहुँचे और उन्हें श्रेष्ठ आसन पर बिठाया। तत्पश्चात दुर्वासा ऋषि की पूजा करके राजाने प्रेमपूर्वक भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया। दुर्वासा ऋषि ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया। किंतु भोजन से पूर्व नित्य संध्या वंदन के लिये वे यमुना नदी के तट पर चले गये। वे परब्रह्म का ध्यान कर यमुना के जल में स्नान करने लगे। 

ऐसा नियम है कि एकादशी का व्रत करने वाले को पूर्ण एकादशी का व्रत रखकर दूसरे दिवस द्वादशी को ही पारण करना चाहिए । परन्तु द्वादशी केवल कुछ ही क्षण शेष रह गयी थी। स्वयं को धर्मसंकट में देख राजा अम्बरीष ब्राह्मणों से परामर्श करते हुए बोले – “मान्यवरों ! ब्राह्मण को बिना भोजन करवाए स्वयं खा लेना और द्वादशी रहते भोजन न करना, दोनों ही मनुष्य को पाप का भागी बनाते हैं। इसलिये इस समय आप मुझे ऐसा उपाय बताएँ, जिससे कि मैं पाप का भागी न बन सकूँ।”

ब्राह्मण बोले – “राजन ! शास्त्रों मे कहा गया है कि पानी भोजन करने के समान है भी और समान नहीं भी । इसलिये इस समय आप जल पी कर द्वादशी का नियम पूर्ण कीजिये।” यह सुनकर अंबरीष ने जल से मात्र आचमन कर संतुष्ट हो दुर्वासा ऋषि की प्रतीक्षा करने लगे । 

जब दुर्वासा ऋषि लौटे तो उन्होंने तपोबल से जान लिया कि अंबरीष व्रत का पारण कर लिया। अत: वे क्रोधित हो उठे और कटु स्वर में बोले – “ दुष्ट अंबरीष ! तू धन के मद में चूर होकर स्वयं को बहुत बड़ा मानता है। तू ने मेरा तिरस्कार किया है। मुझे भोजन का निमंत्रण दिया लेकिन मुझसे पहले स्वयं भोजन कर लिया। अब देख मैं तुझे तेरी दुष्टता का दंड देता हूँ।” 

क्रोधित दुर्वासाजी ने अपनी एक जटा उखाड़ी और अंबरीष को मारने के लिए एक भयंकर और विकराल कृत्या उत्पन्न की। कृत्या तलवार लेकर अंबरीष की ओर बढ़ी किंतु वे बिना विचलित हुए मन ही मन भगवान विष्णु का स्मरण करते रहे। जैसे ही कृत्या ने उनके ऊपर आक्रमण करना चाहा; अंबरीष का रक्षक सुदर्शन चक्र सक्रिय हो गया और पल भर में उसने कृत्या को जलाकर भस्म कर दिया।

जब दुर्वासा ऋषि ने देखा कि चक्र तेजी से उन्हीं की ओर बढ़ रहा है तो वे भयभीत हो गये। अपने प्राणों की रक्षा के लिए वे आकाश, पाताल, पृथ्वी, समुद्र, पर्वत, वन आदि अनेक स्थानों पर शरण लेने गये किंतु सुदर्शन चक्र ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। घबराकर उन्होंने ब्रह्मा जी से रक्षा की गुहार लगायी।

ब्रह्मा जी प्रकट हुए किंतु असमर्थ होकर बोले, “वत्स, भगवान विष्णु द्वारा बनाये गये नियमों से मैं बँधा हुआ हूँ। प्रजापति, इंद्र, सूर्य आदि सभी देवगण भी इन नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकते। हम नारायण की आज्ञा के अनुसार ही सृष्टि के प्राणियों का कल्याण करते हैं। इस प्रकार भगवान विष्णु के भक्त के शत्रु की रक्षा करना हमारे वश में नहीं है।”

ब्रह्माजी की बातों से निराश होकर दुर्वासा ऋषि भगवान शंकर की शरण में गये। पूरा वृत्तांत सुनने के बाद महादेव जी ने उन्हें समझाया, “ऋषिवर! यह सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु का शस्त्र है जो उनके भक्तजन की रक्षा करता है। इसका तेज सभी के लिए असहनीय है। अतः उचित होगा कि आप स्वयं भगवान विष्णु की शरण में जाएँ। केवल वे ही इस दिव्य शस्त्र से आपकी रक्षा कर सकते हैं और आपका मंगल हो सकता है।”

वहाँ से भी निराश होकर दुर्वासा ऋषि भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे और उनके चरणों में सिर नवाकर दया की गुहार लगायी। आर्त स्वर में दुर्वासा बोले, “भगवन मैं आपका अपराधी हूँ। आपके प्रभाव से अनभिज्ञ होकर मैंने आपके परम भक्त राजा अंबरीष को मारने का प्रयास किया। हे दयानिधि, कृपा करके मेरी इस धृष्टता को क्षमा कर मेरे प्राणों की रक्षा कीजिए।”

भगवान नारायण ने दुर्वासा ऋषि को उठाया और समझाया, “मुनिवर ! मैं सर्वदा भक्तों के अधीन हूँ। मेरे सीधे-सादे भक्तों ने अपने प्रेमपाश में मुझे बाँध रखा है। भक्तों का एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ। अतः मैं स्वयं अपने व देवी लक्ष्मी से भी बढ़कर अपने भक्तों को चाहता हूँ। जो भक्त अपने बंधु-बांधव और समस्त भोग-विलास त्यागकर मेरी शरण में आ गये हैं उन्हें किसी प्रकार छोड़ने का विचार मैं कदापि नहीं कर सकता। यदि आप इस विपत्ति से बचना चाहते हैं तो मेरे परम भक्त अंबरीष के पास ही जाइए। उसके प्रसन्न होने पर आपकी कठिनाई अवश्य दूर हो जाएगी।”

नारायण की सलाह पाकर दुर्वासा अंबरीष के पास पहुँचे और अपने अपराध के लिए क्षमा माँगने लगे। परम तपस्वी महर्षि दुर्वासा की यह दुर्दशा देखकर अंबरीष को अत्यंत दुख हुआ। उन्होंने सुदर्शन चक्र की स्तुति की और प्रार्थना पूर्वक आग्रह किया कि वह अब लौट जाय। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर सुदर्शन चक्र ने अपनी दिशा बदल ली और दुर्वासा ऋषि को भयमुक्त कर दिया।

जबसे दुर्वासा ऋषि वहाँ से गये थे तबसे राजा अम्बरीष ने भोजन ग्रहण नहीं किया था। वे ऋषि को भोजन कराने की प्रतीक्षा करते रहे। उनके लौटकर आ जाने व भयमुक्त हो जाने के बाद अम्बरीष ने सबसे पहले उन्हें आदर पूर्वक बैठाकर उनकी विधि सहित पूजा की और प्रेम पूर्वक भोजन कराया। राजा के इस व्यवहार से ऋषि दुर्वासा अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें अनेकशः आशीर्वाद देकर वहाँ से विदा लिये।

गुरुवार, 12 मार्च 2015

भक्त सदन​

एक सदन नाम के कसाई थे, मांस बेचते थे, पर भगवत भजन में बड़ी निष्ठा थी एक दिन एक नदी के किनारे से जा रहें थे रास्ते में एक पत्थर पड़ा मिल गया.उन्हें अच्छा लगा उन्होंने सोचा बड़ा अच्छा पत्थर है क्यों ना में इसे मांस तौलने के लिए उपयोग करूं 

सदन परम्परागत मांस का व्यापार करता था, पर भावना यह थी कि जीव की हत्या नहीं करूँगा। दूसरों से मांस लाकर बेचता था । इसके पास एक शालिगराम​ की बटिया थी वो यह नहीं जानता था की यह शालिगराम​हैं । वह उसे बाँट समझकर मांस तोलता था । एक दिन एक साधु उस शालिगराम की बटिया को देखकर बोले - भक्त यह तू मुझे दे दो। सदन ने अपना वह बाँट साधु को देदिया । साधु उस बटिया को आश्रम में लेजाकर विधिवत पूजा करने लगे । परन्तु भगवान को यह पूजा पसन्द नहीं आई और वे स्वप्न में साधु से बोले - हे महात्मा ! तुम मुझे सदन के घर पहुँचा दो मैं उसकी सच्चाई से प्रसन्न हूँ । सुबह साधु जी वह बटिया लेकर सदन के पास पहुँचे और बोले - भाई ! यह अपना बाँट लो यह तो तुम्हारे पास ही रहना चाहते हैं, अब चाहे तुम इन्हें पूजो और चाहे इनसे मांस तोलो । प्रभु तो तुमसे जी रीझे हैं । 

यह सुनकर सदन का हृदय भर आया । वह प्रेम में इतना डूब गया कि शरीर का भी होश न रहा । सावधान होने पर शालिगराम की बटिया को हृदय से बाँध लिया और तीथ यात्रा को चल दिया । 


कार्य कोई भी हो पर मन पवित्र है जिसका उसे मोक्ष का मार्ग मिल ही जाता है । भक्ति भगवान को प्राणों से भी अधिक प्यारी है और भगवान, भक्ति के द्वारा नीच के घर भी चले जाते हैं ।

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

जड़भरत​ जी



भक्तों में भरत जी का एक अपना स्थान हैं, भरत ऋषभदेव के बड़े पुत्र हैं । ऋषभ जी अपने ज्येष्ठ पुत्र का राज तिलक कर वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करते हैं। यहाँ कुछ वर्षों तक राज्य का पालन कर राजा भरत भी वन में समय व्यतीत करने का निर्णय लेते हैं । अपना राज​-पाठ अपने छोटे भाई को सौंप राजा वन में आजाते हैं। नर्मदा नदी के तट पर एक कुटी बना कर रहते और तप करते ।

हमारा मन कभी-कभी इतना सात्विक और वैराग्य से सरावोर हो जात है, तब उस समय मन मेम आता है कि वन में चले जायें या किसी तीर्थ में जाकर समय व्यतीत करने लगें । परन्तु उस समय हमारा मोह जो परिवार के लिए समर्पित होता है वह रोकलेता है और हम पुन: अपने संसार में व्यस्त हो जाते हैं ।

एक दिन भरत जी प्रात​: स्नान कर भगवान सूर्य को अर्घ दे रहे थे उसी समय मादा हिरण जो की गर्भणी थी, उसके पीछे एक सिंह था जिससे डरके मादा हिरणी ने नदी में छलांग लगा दिया । उस समय हिरणी ने एक सावक को जन्म देकर अपने प्राण त्याग दिये । बहते हुये सावक को देख भरत जी उस सावक को पकड़ कर सुरक्षित अपनी कुटि में ले आये ।
उस सावक का देख-रेख भरत जी करने लगे, अब मन उनका बस में नहीं उस सावक की सुरक्षा में रमने लगा । अब तो भजन भी कम हो गया क्योंकि कुछ समय अब उस सावक पर लुटाने लगे । बात यही है की, मन बड़ा चंचल है। आये थे हरि भजन को औटन लगे कपास। हम अपने कर्तव्य मार्ग योग मार्ग में जब अड़चनें आती तब हम उन्हें समझ नहीं पाते, ठीक किसी जीव की सहायता करना पर उसे अपने मन में बसा लेना तो गलत है । मन में तो मात्र मदनमोहन ही होना चाहिये, पर हम अपने मन कितनों की पीड़ायें उनका स्नेह छिपाये बैठे हैं ।

बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

भक्त ध्रुव​


भक्त ध्रुव राजा उत्तनपाद के पुत्र हैं, भागवती भाषा में उत्तानपाद का अर्थ जीव से है । वह जीव जिसे दो पत्नियाँ है, एक सुरुचि दूसरी शुनीति । सुरुचि का अर्थ भोग से है, जिसकी इच्छाएँ कभी समाप्त न हों, वह स्वयं को सबसे ऊँचा समझे वही सुरुचि है । जो भक्ति, ज्ञान और धर्म में तत्पर है वही शुनीति है । इसी प्रकार जीव को भी दो पत्नियाँ हैं, मन और बुद्धी। यदि मन सात्विक है तो वह आपको बुरा कार्य करने से रोकेगा। परन्तु बुद्धी ज़िद कर के आपसे बुरा कार्य कराने को प्रेरित करेगी । अब जीत यहाँ उसी की है जिसकी पकड़ मजबूत है । चोर का मन भी उसे समझाता है; तू चोरी न कर पकड़ जायेगा यह काम गलत है । पर बुद्धि कहती है नहीं- नहीं चल कोई नहीं पकड़ेगा मैं तुझे सतर्क करूँगी । सोच यदि तू अपने कार्य में सफल होगया तो ते वह सारी आवश्यकताएं पूरी हो जाएगी जिससे तू पिड़ित है । दोनों स्वयं को सत्य कहतीं हैं पर जीव में जिसका अधिकार ज्यादा होगा वह उसी का अनुशरण करता है ।

रानी सुरुचि के कहने पर राजा उत्तानपाद ने बड़ी रानी शुनीति को वन में जाने का आदेश दिया । रानी शुनीति उस समय गर्भावथा में होकर भी अपने पती के वचनों का स्वीकार किया और वन में अपना समय व्यतीत करने लगी । समय पूरा होने पर पुत्र हुआ जिसका लालन पालन वो करतीं, एक दिन पुत्र ध्रुव ने माँ से बोला; माँ मेरे पिता कौन हैं । माँ ने बताया पुत्र, यहाँ के जो राजा हैं वही तुम्हारे पिता हैं । बस यह  सुनते ही  ध्रुव राज  महल पहुँचा और सभा में जाकर अपने पिता से बोला; मेरी माँ का नाम शुनीति है और वो कहती हैं की आप ही मेरे पिता हैं । ध्रुव की बात सुन पिता ने ध्रुव को अपने ह्रदय से लगा लिया और प्रेमवस हो ध्रुव को अपनी गोद में बैठा लिया ।

परन्तु जब सुरुचि ने सुना की राजा ने ध्रुव को अपनी गोद में बैठाया है; वह राजा के पास पहुँची और ध्रुव को नीचे उतार कर अपने पुत्र उत्तम को वहाँ बैठा दिया, और बोली; बालक तुम वन के राजा हो तुम्हारे भाग्य में जो है वह तुम्हें प्राप्त है और यदि तुम अपने पिता की गोद में बैठना है तो जाओ वन में जाकर तप करो । कठोर तप से जब भगवान नारायण प्रसन्न हो तुमसे वर मांगने को कहें तो तुम उन्हें कहना की मुझे माता सुरुचि के कोख से जन्म मिले । इस प्रकार जब तुम मेरे द्वारा जन्म लोगे तब तुम अपने इस पिता की गोद में बैठने का अधिकार प्राप्त करोगे ।

ध्रुव रोता हुआ अपनी माँ के पास आया और अपनी छोटी माँ द्वारा कही सारी बात बताया । माँ ने अपने पुत्र ध्रुव के मनोदशा को जानकर समझाया । ध्रुव; तुम्हारी छोटी माँ ने तुमसे जो भी कहा वह सत्य है तुम्हे तप करना चाहिए। तुम्हे पता है तुम्हारे पिता के पिता कौन हैं ? "श्रीहरि" समस्त ब्रह्माण्ड के  जनक हैं, यह पिता तो संसारिक हैं इनसे तुम्हें संसारिक सुख के सिवा और कुछ नहीं मिल सकता यदि तुम्हें बैठना है तो उनकी गोद में बैठो जिनकी गोद में सारा जगत खेलता है । माँ की यह ज्ञान भरी बात सुन बालक ध्रुव ने संकल्प लिया कि मैं अब तप करुँगा और रात्रि में ही घर का त्याग कर तप करने चले गये ।

जीव की पत्नी यदि शुनीति है अर्थात वैद्यिक नीतियों पर चलने वाली तो उसे ध्रुव की प्राप्ती होगी । ध्रुव का अर्थ है "अटल विश्वास" जिस विश्वास के द्वारा जीव का कल्याण होता है । परन्तु जिसकी पत्नी सुरुचि है उसे उत्तम नाम का पुत्र होता है अर्थात जीव की रुची उत्त्मोत्तम बढने लग जाती है । भोग विलास में वह लिप्त रहता है ।

ध्रुव ने छ​: माह का कठोर तप किया श्रीहरि प्रकट हो बोले; उठो पुत्र जागो। जब भगवान ने ध्रुव के कपोल पर अपना शंख स्पर्स कराया ध्रुव वेद के धनी हो गये । भगवान बोले क्या कामना है तुम्हारी। ध्रुव ने कहा प्रभु वह मैं कैसे कहुँ आप सब जानने वाले हैं जो उचित हो वही करें । भगवान ध्रुव को हजार वर्ष के लिए राजा होने का वरदान दिया और अन्तरध्यान हो गये जब ध्रुव को ज्ञात हुआ की उसने वह कार्य किया जैसे राजा ने किसी किसान पर खुस हो कहे वर्दान मागो क्या चाहते हो और वह राजा से गाड़ी भूसा मागले । निरास हो ध्रुव जब पहले महल में जाकर अपनी छोटी माँ से मिले तो उस माँ ने उसे गले से लगा लिया ।

बात यह है की जब हम दु:खी होते हैं अपने भाग्य से तब दूसरे तो क्या अपने भी सहयोग नहीं देते । पर जब हम अपने कर्म से अपना भाग्य बदल लेते हैं और सुखी हो जाते हैं तब दुस्मन भी दोस्त हो जाते हैं । एक दिन आखेट में गये उत्तम की मृत्यु हो जाती है । कारण यह है कि जब जीव को शुनीति और ध्रुव प्राप्त होते हैं तब उत्तम अर्थात ऊँची इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं । इस प्रकार जब उत्तम मरता है तब सुरुचि भी जीव का साथ छोड़ वन में जाकर प्राण त्याग देती है । 

इसलिए जीव को वैद्यिक नीतियों पर चलना चाहिए जिससे उसे ध्रुव की प्राप्ती हो और जब ध्रुव मिला तो सद्गती सम्भव है ।
॥ ॐ शान्ति ॐ शान्ति ॥
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भक्त प्रह्लाद​


भक्त प्रह्लाद को कौन नहीं जानता, प्रह्लाद निश्काम भक्तों की श्रेणी में आते हैं । निश्काम का अर्थ है- स्वयं के हित की भी कामना न रखना । मात्र लोक हित में परमारथ ही राह पर चलना। हमें इस दिव्य भक्त कथा रस से बहुत सी प्रेरक शिक्षाएँ प्राप्त होती हैं । विज्ञान कहता है की माँ के गर्भ में स्थापित शिशु के बुद्धी विकास में माँ का पूर्ण योगदान होता है, माँ के जैसे विचार होंगे शिशु का विकास उसी स्तर में होता है । जैसा की कथा में बताया गया है कि महान दैत्य हिरण्यकशिपु की पत्नी जब गर्भावस्था में थीं उस समय देव ऋषी नारद जी कयाधु को अपने आश्रम लेके आये और उसका देख रेख आश्रम में वैद्यिक रूप से किया जाने लगा । 

आश्रम में चारो ओर शान्ति, पक्षियों का कलरव​, वनस्पतियों की महक, वेदों की ध्वनि, मंत्रों के मधुर स्वर से आश्रम का पूरा वातावरण पवित्र था । कयाधु नित्य ही भगवत कथा का रस पान किया करती, स्वयं भगवान के भजनों को गुन-गुनाया करती । कयाधु का पूरा समय हरि संकीर्तन भगवत भजन में ही व्यतीत हुआ करता था। यही कारण है की कयाधु के गर्भ में पल रहा शिशु भक्त हुआ । इस पुत्र से पहले भी कयाधु को चार पुत्र थे परन्तु उनका जन्म महल में ही हुआ था, ऐसी स्थिती तब नहीं बनी थी जिस कारण ये चार पुत्र दानव प्रवत्ती के हुये ।

आज के आधुनिक युग की भी यही समस्या है, अब समय पहले जैसा नहीं रहा, नारी को सब तरह का अधिकार दिया जा रहा है। आज लोग भविष्य का नहीं वर्तमान का देखते हैं, अच्छा है। पर यदि आप वर्तमान का सम्मान नहीं करेंगे, समय का उचित उपयोग नहीं करंगे तो आपका भविष्य बिगड़ जायेगा। यदि आप भविष्य को देखते हुए वर्तमान में सात्विक जीवन को अपनाते हैं तो अवश्य ही आपका भविष्य उज्वल होगा । गर्भावस्था में आज की महिलाएँ मद्य पान और मांस जो कि अखाद्य है का सेवन कर शिशु के वर्तमान का विचार न कर उसका भविष्य भी दूषित कर देती हैं ।

गर्भावस्था के समय मन की शान्ती, सात्विक भोजन और सद्विचार आदि का पालन तो कर ही सकते हैं, आज के व्यस्तता से भरे जीवन में यदि माता पिता अपने शिशु का ध्यान गर्भसमय से ही रखते हैं तो अवश्य ही आपका बालक बुद्धजीवी होगा ।  पुरानी कहावत है:- जैसा खाओ अन्न, वैसा होवे मन​। गर्भावस्था मेम शिशु के मन का तार माँ से जुड़ा होता है। माँ के विचार जिस प्रकार से होंगे, शिशु का मन उसी विचारों से पुष्ट होता जायेगा । जन्म के बाद वह शिशु जब दो से तीन वर्ष में होता है उस समय गर्भ में प्राप्त विचार पुष्ट हो बच्चे को प्रभावित करते हैं । इसलिए माँ का अपना कर्तव्य है कि वह अपने साथ-साथ शिशु का विशेष ध्यान रखे । अपने इस समय को सारणीबद्ध तरीके से खान​-पान, रहन​-सहन से अपने शिशु का विकास करें।

नारद जी के आश्रम में ही भक्त प्रह्लाद का जन्म हुआ । वहाँ ऋषियों, संतो का संग पाकर प्रह्लाद के मन से वह
सारी इच्छाएँ समाप्त हो ग​ई जिनके लिए हम अपना पूरा जीवन समाप्त कर स्वयं समाप्त हो जाते हैं। और जिस भक्त के गुरु स्वयं नारद जी हों भला उसका अहित कौन कर सकता है ।  पिता हिरण्यकशिपु ने अपने छोटे पुत्र को बहुत समझाया की वह हरि भक्ती का त्याग करदे पर पुत्र अपने संकल्प में स्थिर रहा । यही बात है की जो माता-पिता अपने गर्भावस्था के समय किसी भी तरह का व्यसन करते हैं, संतान उसी मार्ग का अनुशरण करता है, फिर पिता भले ही यह कहते कहते मृत्यु को प्राप्त हो जाये की बेटा शराब पीना बुरी बात है । तब वह किसी की नहीं अपने मन की सुनता है, जो पहले से ही माता-पिता ने दूषित कर दिया था। जिस प्रकार भक्ती के मार्ग में बहुत सी विपत्तियाँ प्रह्लाद को सहनी पड़ीं, उसी प्रकार आपके पुत्र को  असत्य के मार्ग में ठोकर (अपयस) ही मिलता है । 

जब भक्त प्रह्लाद के पिता ने पूँछा बता तेरा नारायण कहाँ है। तब प्रह्लाद जी ने बताया- पिताजी आप यह
पूछिये की वह कहाँ नहीं हैं अर्थात वे सर्वत्र और सर्वदा व्याप्त हैं । मुझमें तुममें खडग खम्भ में कहाँ नहीं हैं राम। एक निश्काम भक्त के पुकारने पर भगवान नृसिंह प्रकट हुए और हिरण्यकशिपु का उद्धार किया । भगवान ने प्रह्लाद से कहा पुत्र बोलो तुम्हे क्या चाहिए, मैं तेरी हर मनोकामना पूर्ण करूँगा । भक्त ने कहा प्रभू क्या मांगू मैं आपसे आपने मुझे पहले से धनी बना दिया मैं भजन का धनी हूँ जो इस संसार का है वह यहीं मिलता है और वह यहीं रह जाता है, जो साथ जाता है, वह आपका नाम है मुझे आपका स्मरण सदैव बना रहे यही मेरी इच्छा है। और मैं जानता हूँ यदि आप मुझे कुछ देना चाहते हैं तो अवश्य मेरे अन्दर कोई कामना होगी जिसे मैं नहीं जानता, पर आप घट​-घट को जानने वाले हैं, मैं बस यही चाहता हूँ की मेरे पिता का पतन न हो, आप उनका कल्याण करें । 

अपने भक्त के निश्कामना को देख भगवान की आखें नम हो ग​ई, बोले- पुत्र सचमुच वह पिता बड़भागी है जिसको तुम्हारे जैसा पुत्र है । सही मायने में वही संतान पुत्र कहलाने के योग्य हैं जो अपने माता-पिता की मुक्ती, उनके कल्याण, उनके हित का कार्य करता है । पुन्नाम नरका त्रायते इति पुत्र​: ॥ जो संतान अपने पूर्वजों को पुन नाम के नरक से मुक्त कराता है वही पुत्र है । तुम धन्य हो पुत्र । तुम धन्य हो..

हमारा वैद्यिक धर्म, संस्कारित व शिक्षित करता है, हम अपने जीवन को शिक्षित बनाएं वैद्यिक धर्म का पालन करें तभी हम जीवों का कल्याण होगा। 
॥ॐ शान्ति ॐ शान्ति॥
_________ॐ________