सोमवार, 7 मार्च 2016

महाशिवरात्रि (चित्रभानु एक शिकारी)


पूर्व काल में चित्रभानु नामक एक शिकारी था। जानवरों की हत्या करके वह अपने परिवार को पालता था। वह एक साहूकार का कर्जदार था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधित साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी। शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव-संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि व्रत की कथा भी सुनी। शाम होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया। अपनी दिनचर्या की भांति वह जंगल में शिकार के लिए निकला। लेकिन दिनभर बंदी गृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार खोजता हुआ वह बहुत दूर निकल गया।

जब अंधकार हो गया तो उसने विचार किया कि रात जंगल में ही बितानी पड़ेगी। वह वन एक तालाब के किनारे एक बेल के पेड़ पर चढ़ कर रात बीतने का इंतजार करने लगा। बिल्व वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बिल्वपत्रों से ढंका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला। पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियां तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरती चली गई। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बिल्वपत्र भी चढ़ गए। एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी हिरणी तालाब पर पानी पीने पहुंची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, हिरणी बोली, ऽमैं गर्भिणी हूँ। शीघ्र ही प्रसव करूंगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊंगी, तब मार लेना।

शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और हिरणी जंगली झाड़ियों में लुप्त हो गई। प्रत्यंचा चढ़ाने तथा ढीली करने के वक्त कुछ बिल्व पत्र अनायास ही टूट कर शिवलिंग पर गिर गए। इस प्रकार उससे अनजाने में ही प्रथम प्रहर का पूजन भी सम्पन्न हो गया। कुछ ही देर बाद एक और हिरणी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख हिरणी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, ऽहे शिकारी! मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूं। कामातुर विरहिणी हूं। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूं। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी। शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। इस बार भी धनुष से लग कर कुछ बेलपत्र शिवलिंग पर जा गिरे तथा दूसरे प्रहर की पूजन भी सम्पन्न हो गई।
तभी एक अन्य हिरणी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर नहीं लगाई। वह तीर छोड़ने ही वाला था कि हिरणी बोली, ऽहे शिकारी!ऽ मैं इन बच्चों को इनके पिता के हवाले करके लौट आऊंगी। इस समय मुझे मत मारो। शिकारी हंसा और बोला, सामने आए शिकार को छोड़ दूं, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूं। मेरे बच्चे भूख-प्यास से व्यग्र हो रहे होंगे। उत्तर में हिरणी ने फिर कहा, जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी। हे शिकारी! मेरा विश्वास करों, मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूँ। हिरणी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के अभाव में तथा भूख-प्यास से व्याकुल शिकारी अनजाने में ही बेल-वृक्ष पर बैठा बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हृष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य करेगा।

शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला, हे शिकारी! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है, तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि मुझे उनके वियोग में एक क्षण भी दुख न सहना पड़े। मैं उन हिरणियों का पति हूं। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण का जीवन देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जाऊंगा।

मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटनाचक्र घूम गया, उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, ऽमेरी तीनों पत्नियां जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएंगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूँ।

शिकारी ने उसे भी जाने दिया। इस प्रकार प्रात: हो आई। उपवास, रात्रि-जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ने से अनजाने में ही पर शिवरात्रि की पूजा पूर्ण हो गई। पर अनजाने में ही की हुई पूजन का परिणाम उसे तत्काल मिला। शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया। उसमें भगवद्शक्ति का वास हो गया।

थोड़ी ही देर बाद वह मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके।, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसने मृग परिवार को जीवनदान दे दिया।

अनजाने में शिवरात्रि के व्रत का पालन करने पर भी शिकारी को मोक्ष की प्राप्ति हुई। जब मृत्यु काल में यमदूत उसके जीव को ले जाने आए तो शिवगणों ने उन्हें वापस भेज दिया तथा शिकारी को शिवलोक ले गए। शिव जी की कृपा से ही अपने इस जन्म में राजा चित्रभानु अपने पिछले जन्म को याद रख पाए तथा महाशिवरात्रि के महत्व को जान कर उसका अगले जन्म में भी पालन कर पाए।

शिकारी की कथानुसार महादेव तो अनजाने में किए गए व्रत का भी फल दे देते हैं। पर वास्तव में महादेव शिकारी की दया भाव से प्रसन्न हुए। अपने परिवार के कष्ट का ध्यान होते हुए भी शिकारी ने मृग परिवार को जाने दिया। यह करुणा ही वस्तुत: उस शिकारी को उन पण्डित एवं पूजारियों से उत्कृष्ट बना देती है जो कि सिर्फ रात्रि जागरण, उपवास एव दूध, दही, एवं बेल-पत्र आदि द्वारा शिव को प्रसन्न कर लेना चाहते हैं।

इस कथा में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस कथा में ऽअनजाने में हुए पूजनऽ पर विशेष बल दिया गया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि शिव किसी भी प्रकार से किए गए पूजन को स्वीकार कर लेते हैं अथवा भोलेनाथ जाने या अनजाने में हुए पूजन में भेद नहीं कर सकते हैं।

वास्तव में वह शिकारी शिव पूजन नहीं कर रहा था। इसका अर्थ यह भी हुआ कि वह किसी तरह के किसी फल की कामना भी नहीं कर रहा था। उसने मृग परिवार को समय एवं जीवन दान दिया जो कि शिव पूजन के समान है। शिव का अर्थ ही कल्याण होता है। उन निरीह प्राणियों का कल्याण करने के कारण ही वह शिव तत्व को जान पाया तथा उसका शिव से साक्षात्कार हुआ।

परोपकार करने के लिए महाशिवरात्रि का दिवस होना भी आवश्यक नहीं है। पुराण में चार प्रकार के शिवरात्रि पूजन का वर्णन है। मासिक शिवरात्रि, प्रथम आदि शिवरात्रि, तथा महाशिवरात्रि। पुराण वर्णित अंतिम शिवरात्रि है-नित्य शिवरात्रि। वस्तुत: प्रत्येक रात्रि ही ऽशिवरात्रिऽ है अगर हम उन परम कल्याणकारी आशुतोष भगवान में स्वयं को लीन कर दें तथा कल्याण मार्ग का अनुसरण करें, वही शिवरात्रि का सच्चा व्रत है।

शुक्रवार, 4 मार्च 2016

नरहरि सुनार

पंढरपुर में नरहरि सुनार रहते थे, किंतु इनका हृदय काशी के भोले बाबा ने चुरा लिया था। शिव की भक्ति में ये इतने मगन रहते थे कि पंढरपुर में रहकर भी विट्ठल भगवान को न तो इन्होंने कभी देखा और न ही देखने को उत्सुक थे। नरहरि सुनारी का काम करते थे। इस लिए जब सोने के आभूषण बनाते, तो उस समय भी शिव, शिव, शिव, शिव का नाम सतत इनके होंठों पर रहता। इस लिए इनके बनाए आभूषणों में भी दिव्य सौंदर्य झलकने लगता था।

पंढरपुर में ही रहता था एक साहूकार, जो कि विट्ठल भगवान का भक्त था। उसके कोई पुत्र न था। उसने एक बार विट्ठल भगवान से मनौती की कि यदि उसे पुत्र हुआ, तो वह विट्ठल भगवान को सोने की करधनी (कमरबंद या कमर पट्टा) पहनाएगा। विट्ठल भगवान की कृपा से उसके पुत्र उत्पन्न हुआ। वह खुशी से फूला न समाया और भागा-भागा नरहरि सुनार के पास सोना लेकर पहुँचा और बोला-

नरहरि जी ! विट्ठल भगवान ने प्रसन्न होकर मुझे पुत्र प्रदान किया है। अतः मनौती के अनुसार आज मैं विट्ठल भगवान को रत्नजड़ित सोने की करधनी पहनाना चाहता हूँ। पंढरपुर में आपके अलावा इस प्रकार की करधनी और कोई नहीं गढ़ सकता। इस लिए आप यह सोना ले लीजिए और पांडुरंग मंदिर में चलकर विट्ठल भगवान की कमर की नाप ले आइए और जल्दी से करधनी तैयार कर दीजिए। 

विट्ठल भगवान का नाम सुनकर नरहरि जी बोले, "भैया ! मैं शिवजी के अलावा किसी अन्य देवता के मंदिर में प्रवेश नहीं करता। इसलिए आप किसी दूसरे सुनार से करधनी तैयार करा लें। लेकिन साहूकार बोला, नरहरि जी ! आपके जैसा श्रेष्ठ सुनार तो पंढरपुर में और कोई नहीं है, इसलिए मैं करधनी तो आपसे ही बनवाऊँगा। यदि आप मंदिर नहीं जाना चाहते हैं, तो ठीक है। मैं स्वयं विट्ठल भगवान की कमर की नाप ला देता हूँ। नरहरि जी ने मजबूरी में इसे स्वीकार कर लिया। साहूकार विट्ठल भगवान की कमर का नाप लेकर आ गया और नरहरि जी ने उस नाप की रत्नजड़ित सोने की करधनी बना दी। 

साहूकार आनंद पूर्वक उस करधनी को लेकर अपने आराध्य देव विट्ठल भगवान को पहनाने मंदिर गया। जब पुजारी जी वह करधनी विट्ठल भगवान को पहनाने लगे, तो वह करधनी कमर से चार अंगुल बड़ी हो गई। साहूकार करधनी लेकर वापिस नरहरि जी के पास लौटा और उस करधनी को छोटा करवा लिया। जब वह पुनः करधनी लेकर मंदिर पहुँचा और पुजारी ने वह करधनी विट्ठल भगवान को पहनानी चाही, तो अबकी बार वह चार अंगुल छोटी निकली।

नरहरि जी ने करधनी फिर बड़ी की, तो वह चार अंगुल बढ़ गई। फिर छोटी की, तो वह चार अंगुल कम हो गई। ऐसा चार बार हुआ। पुजारी जी व अन्य श्रद्धालुओं ने साहूकार को सलाह दी कि नरहरि जी स्वयं ही विट्ठल भगवान की कमर की नाप ले लें।

साहूकार के अत्यधिक अनुनय-विनय करने पर नरहरि जी बड़ी मुश्किल से विट्ठल भगवान के मंदिर में जाकर स्वयं नाप लेने को तैयार हुए। किंतु कहीं उन्हें विट्ठल भगवान के दर्शन न हो जाएँ, यह सोचकर उन्होंने साहूकार के सामने यह शर्त रखी कि मंदिर में घुसने से पहले मैं अपनी आँखों पर पट्टी बाँध लूँगा और हाथों से टटोल कर ही आपके विट्ठल भगवान की कमर की नाप ले सकूँगा। साहूकार ने नरहरि जी की यह शर्त मान ली। अनेक शिवालयों से घिरे पांडुरंग मंदिर की ओर कदम बढ़ाने से पहले नरहरि जी ने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली। साहूकार इन्हें मंदिर के अंदर ले आया और विट्ठल भगवान के सामने खड़ा कर दिया। जब नरहरिजी ने नाप लेने के लिए अपने हाथ आगे बढ़ाए और मूर्ति को टटोलना शुरू किया, तो उन्हें लगा कि वे पाँच मुख, दस हाथ वाले, साँपों के आभूषण पहने हुए, मस्तक पर जटा और उसमें से प्रवाहित हो रही गंगा वाले शंकर भगवान की मूर्ति का स्पर्श कर रहे हैं।

नरहरि जी ने सोचा, कहीं साहूकार मुझ से ठिठोली करने के लिए विट्ठल भगवान के मंदिर की जगह किसी शिवालय में तो नहीं ले आए हैं। यह सोचकर ये अपने आराध्य देव के दर्शन के लोभ से बच नहीं पाए और प्रसन्न होकर इन्होंने अपनी आँखों से पट्टी खोल दी। किंतु आँखें खोलकर देखा तो ठगे से रह गए। देखा सामने उनके आराध्य शिव भगवान नहीं विट्ठल ही खड़े हैं। झट इन्होंने फिर से अपनी आँखों पर पट्टी बाँधी और पुनः नाप लेने लगे। लेकिन जैसे ही इन्होंने पुनः मूर्ति के दोनों ओर अपने हाथ ले जाकर कमर की नाप लेने का प्रयास किया, तो इन्हें पुन: ऐसा आभास हुआ कि मानो ये अपने इष्टदेव बाघाम्बर धारी भगवान शिवजी का ही आलिंगन कर रहे हों। जैसे ही आँखों से पट्टी खोलकर देखा, तो पुनः विट्ठल भगवान की मुस्कराती हुई छवि दिखलाई पड़ी। हड़बड़ाते हुए इन्होंने तुरंत अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली और फिर से मूर्ति की कमर का नाप लेने लगे। लेकिन आँखें बंद करने पर पुनः मूर्ति में शंकर भगवान का आभास हुआ। 

जब ऐसा तीन बार हुआ, तो नरहरि जी असमंजस में पड़ गए। इन्हें समझ में आ गया कि शिव और विट्ठल भगवान अलग-अलग नहीं हैं। जो शंकर हैं, वे ही विट्ठल (विष्णु) हैं और जो विट्ठल (विष्णु) हैं, वे ही शंकर हैं। अब तो इन्होंने झट अपनी आँखों पर बँधी अज्ञान की पट्टी उतारकर फेंकी और क्षमा माँगते हुए विट्ठल भगवान के चरणों में गिर पड़े और सुबक-सुबककर रोते हुए कहने लगे, हे विश्व के जीवनदाता! मैं आपकी शरण में आया हूँ। मैं शिवजी में और आपमें अंतर करता था। इसीलिए मुझ नराधम ने आज तक आपके दर्शन तक न किए। आज आपने मेरे मन का अज्ञान और अंधकार दूर कर दिया। कृपया अपने इस अपराधी को क्षमा कर दीजिए। 

नरहरि जी की इस सरलता पर विट्ठल भगवान रीझ गए और उन्होंने प्रसन्न होकर नरहरि के इष्टदेव शिवजी को सम्मान देते हुए अपने शीश पर शिवलिंग धारण कर लिया। विट्ठल भगवान को सिर पर शिवलिंग धारण किए देखकर नरहरि जी और भी अधिक रोमांचित हो गए और अश्रुपात करते हुए गद्गद स्वर से उनकी स्तुति करने लगे। अब की बार नरहरि जी ने विट्ठल भगवान की कमर की नाप लेकर प्रेम पूर्ण हृदय से जो करधनी बनाई, वह उनकी कमर में बिल्कुल ठीक बैठी। विट्ठल भगवान को रत्नजड़ित करधनी पहने देख नरहरि जी और साहूकार भाव-विभोर हो उठे। अब नरहरि जी विट्ठल भगवान को अपने इष्ट देव शिव भगवान का ही रूप मानने लगे थे, अतः ये विट्ठल-भक्तों के वारकरी मंडल में शामिल हो गए। ये विट्ठल, विट्ठल, विट्ठल, विट्ठल का भगवन्नाम संकीर्तन करते हुए मस्ती में नृत्य करते। आज भी अपने सिर पर शिवलिंग धारण किए पंढरपुर के विट्ठल भगवान के दर्शन कर भक्तजनों को नरहरि सुनार की इस कथा की बरबस याद आ जाती है।

संत नामदेव

संत नामदेव जी भगवान विट्ठळ के परम भक्त थे। ये सात वर्ष की उम्र से ही भगवान विट्ठळ के भजन गाने लगे थे। इनकी माता गोनाबाई हर दिन भगवान विट्ठळ जी को दूध का भोग लगाती थीं। एक दिन माता अपने काम में व्यस्त थीं तो पुत्र नामदेव को विट्ठळ भगवान को भोग लगाने को भेजा। नामदेव जी ने प्रेम से जब दूध का भोग भेट किया वैसे ही भगवान मूर्ती से प्रकट हो गये और पूरा दूध पी लिया। 

अब नामदेव जी ने खुशी से यह वृत्तान्त माता को जाकर सुनाया। नामदेव जी की ये बातें सुन उनके माता पिता चकित हुए उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था। वे नामदेव को मन्दिर लेकर गये और पुनः भोग लगाने को कहा। नामदेव जी जब पुनः भगवान विट्ठळ को दूधका भोग लगाया वे प्रकट होकर दूध पीने लगे, यह देख उनके माता पिता आचंभित थे। परमात्मा अपने भक्तों की पुकार में तनिक भी विलम्ब नहीं करते, यही विट्ठळ की लीला है।

एक समय आप भगवान विट्ठळ के निमित्त रोटी बना रहे थे की तभी एक कुत्ता मुख में रोटी दबाकर भागने लगा आप उस कुत्ते के पीछे घी लेकर दौड़े। हे विट्ठळा! सूखी रोटी मत पाओ तनिक घी के साथ पाओ। इस भाव को देख भगवान कुत्ते में से प्रकट होना पड़ा।

एक बार एक ब्राह्मण देव आपको भजन के लिए निमंत्रित किया। आप अपने साथियों के साथ ब्राह्मण के घर जा रहे थे तभी मुस्लिम राजा ने आपको बंदी बना लिया और स्लाम कुबूल करने को बोला। उसने कहा यदि तुम स्लाम कुबूल नहीं करते तो अपनी भक्ती की शक्ती से इस मरी गाय को जिन्दा करके दिखाओ। नामदेव जी जब नही माने तो सुल्तान नामदेव जी को हाथी के पैरों तले कुचलने का आदेश दिया पर हाथी उन्हे देख शान्त होगया। अपने पुत्र की पीड़ा को देख माता ने कहा पुत्र परमात्मा एक ही है तू स्लाम कुबूल करले नहीं तो यह दुष्ट राजा तुझे मार देगा। तभी नामदेव जी ने उस मरी गाय को जीवित कर अपनी भक्ती की शक्ती का प्रमाण दिया। उनके इस कार्य से सुल्तान भी उनके सामने नतमस्तक हो गया।

गुरुवार, 3 मार्च 2016

कर्मा बाई जी


श्री कृष्ण की परम उपासक कर्मा बाई जी भगवान को बाल भाव से भजती थीं. बाल रूप ठाकुर जी से वह रोज ऐसे बातें करतीं जैसे बिहारी जी उनके पुत्र हों और उनके घर में ही वास करते हैं। एक दिन उनकी इच्छा हुई कि बिहारी जी को फल-मेवे की जगह अपने हाथ से कुछ बनाकर खिलाउं। उन्होंने प्रभु से अपनी इच्छा बतादी, भगवान तो भक्तों के लिए सर्वथा प्रस्तुत हैं। 

गोपाल बोले- जो भी बनाया हो वही खिला दो भूख लगी है। कर्मा बाई जी ने खिचड़ी बनाई थी। ठाकुर जी को खिचड़ी दी और उन्होंने बड़े चाव से खाया। कर्मा बाई जी पंखा झलने लगीं कि कहीं गरम खिचड़ी से ठाकुर जी के मुंह न जल जाएं। संसार को अपने मुख में समाने वाले भगवान को भक्त एक माता की तरह पंखा कर रही हैं भगवान भक्त की भावना में विभोर हो गए।

भक्त वत्सल भगवान ने कहा- मुझे तो खिचड़ी बहुत अच्छी लगी। मेरे लिए आप रोज खिचड़ी ही पकाया करो, मैं तो यही खाउंगा। कर्मा बाई जी रोज सुबह उठतीं और सबसे पहले खिचड़ी बनातीं। बिहारी जी भी सुबह-सबेरे दौड़े आते। आते ही कहते माता जल्दी से मेरी प्रिय खिचड़ी लाओ। प्रतिदिन का यही क्रम बन गया. भगवान सुबह-सुबह आते, भोग लगाते और फिर चले जाते। 

एक बार एक साधु कर्मा बाई जी के पास आया। उसने सुबह-सुबह सबसे पहले खिचड़ी बनाते देखा तो नाराज होकर कहा-सर्व प्रथम नहा धोकर पूजा-पाठ करनी चाहिए लेकिन आपको तो पेट की चिंता सताने लगती है।कर्मा बाई जी बोलीं- क्यां करूं ? संसार जिस भगवान की पूजा-अर्चना कर रही होती है, वही सुबह-सुबह भूखे आ जाते हैं। उनके लिए ही तो खिचड़ी बनाती हूं। साधु ने सोचा कि शायद कर्मा बाई की बुद्धि फिर गई है। जैसे भगवान इसकी बनाई खिचड़ी के लिए भूखे रह जाते हैं। उसने कहा कि तुम भगवान को अशुद्ध कर रही हो। सुबह स्नान के बाद पहले रसोई की सफाई करो. फिर भगवान के लिए भोग बनाओ। अगले दिन कर्मा बाई जी ने ऐसा ही किया. जैसे ही सुबह हुई भगवान आये और बोले माँ में आ गया, खिचड़ी लाओ। कर्मा बाई जी ने कहा- अभी में स्नान कर रही हूँ, थोडा रुको! थोड़ी देर बाद भगवान ने आवाज लगाई, जल्दी कर माँ, मेरे मंदिर के पट खुल जायेगे मुझे जाना है।
वह फिर बोलीं – अभी में सफाई कर रही हूँ, भगवान ने सोचा आज माँ को क्या हो गया, ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ। भगवान ने झटपट जल्दी-जल्दी खिचड़ी खायी, आज खिचड़ी में भी भाव का वह स्वाद नहीं आया। जल्दी-जल्दी में भगवान बिना पानी पिए ही भागे। बाहर संत को देखा तो समझ गये जरुर इसी ने कुछ सिखाया है।ठाकुर जी के मंदिर के पुजारी ने जैसे ही पट खोले तो देखा भगवान के मुख से खिचड़ी लगी थी। वे बोले- प्रभु! ये खिचड़ी कैसे आप के मुख में लग गयी।

भगवान ने कहा- पुजारी जी आप उस संत के पास जाओ और उसे समझाओ, मेरी माँ को कैसी पट्टी पढाई, पुजारी ने संत से सारी बात कही। संत घबराए और तुरंत कर्मा बाई जी के पास जाकर कहा- ये नियम धरम तो हम संतो के लिये है आप तो जैसे बनाती हो वैसे ही बनाएँ। ठाकुर जी खिचड़ी खाते रहे।

भगवान अपनी बनाई व्यवस्था को कभी बदलते नहीं. सो एक दिन कर्मा बाई जी के भी प्राण छूटे। उस दिन भगवान बहुत रोए। पुजारी ने पट खोला तो देखा भगवान रो रहे थे। पुजारी ने रोने का कारण पूछा तो भगवान बोले- आज मेरी माँ इस लोक को छोड़कर मेरे लोक को विदा हो गई। अब मुझे कौन खिचड़ी बनाकर खिलाएगा।पुजारी ने कहा- प्रभु आप की माता की कमी महसूस न होने दी जाएगी। आज से सबसे पहले रोज खिचड़ी का भोग लगेगा। इस तरह आज भी जगन्नाथ भगवान को खिचड़ी का भोग लगता है।

शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

भीष्मपितामह

भक्तराज भीष्मपितामह महाराज शांतनु के औरस पुत्र थे और गंगादेवी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। वसिष्ठ ऋषि के शाप से आठों वसुओं ने मनुष्योनि में अवतार लिया था, जिनमें सात को तो गंगा जी ने जन्मते ही जल के प्रवाह में बहाकर शाप से छुड़ा दिया। ‘द्यौऽ नामक वसु के अंशावतार भीष्म को राजा शांतनु ने रख लिया। गंगादेवी पुत्र को उसके पिता के पास छोड़कर चली गयी। बालक का नाम देवव्रत रखा गया था।
दास के द्वारा पालित हुई सत्यवती पर मोहित हुए धर्मशील राजा शांतनु को विषादयुक्त देखकर युक्ति से देवव्रत ने मंत्रियों द्वारा पिता के दु:ख का कारण जान लिया और पिता की प्रसन्नता के लिए सत्यवती के धर्मपिता दास के पास जाकर उसके इच्छानुसार ‘राजसिंहासन पर न बैठने और आजीवन ब्रह्मचर्य पालने की कठिन प्रतिज्ञा करके पिता का सत्यवती के साथ विवाह करवा दिया। पितृभक्ति से प्रेरित होकर देवव्रत ने अपना जन्मसिद्ध राज्याधिकार छोड़कर सदा के लिए स्त्रीसुख का भी परित्याग कर दिया, इसलिए देवताओं ने प्रसन्न होकर पुष्पवृष्टि करते हुए देवव्रत का नाम भीष्म रखा। पुत्र का ऐसा त्याग देखकर राजा शांतनु ने भीष्म को वरदान दिया कि ‘तू जबतक जीना चाहेगा तब तक मृत्यु तेरा बाल भी बांका नहीं कर सकेगी, तेरी इच्छामृत्यु होगी। निष्काम पितृभक्त और आजीवन अस्खलित ब्रह्मचारी के लिए ऐसा होना कौन बड़ी बात है ? कहना नहीं होगा कि भीष्म ने आजीवन प्रतिज्ञा का पालन किया। भीष्म जी बड़े ही बीर योद्धा थे और उनमें क्षत्रियों के सब गुण मौजूद थे। अर्थात ‘वीरता, तेज, धैर्य, कुशलता, युद्ध से कभी न हटाना, दान और ऐश्वर्यभाव - ये क्षत्रियों के स्वाभाविक कर्म हैं।

भीष्म ने दुर्योधन की अनीति देखकर उसे कई बार मीठे - कड़े शब्दों में समझाया था, पर वह नहीं समझा और जब युद्ध का समय आया तब पाण्डवों की ओर मन होने पर भी भीष्म ने बुरे समय में आश्रयदाता की सहायता करना धर्म समझकर कौरवों के सेनापति बनकर पाण्डवों से युद्ध किया। वृद्ध होने पर भी उन्होंने दस दिन तक तरुण योद्धा की तरह लड़कर रणभूमि में अनेक बड़े बड़े वीरों को सदा के लिए सुला दिया और अनेक को घायल किया। कौरवों की रक्षा असल में भीष्म के कारण ही कुछ दिनों तक हुई । महाभारत के अठारह दिनों के सारे संग्राम में दस दिनों का युद्ध अकेले भीष्म जी के सेनापतित्व में हुआ, शेष आठ दिनों में कई सेनापति बदले। इतना होने पर भी भीष्म जी पाण्डवों के पक्ष में सत्य देखकर उनका मंगल चाहते और यह मानते थे कि अंत में जीत पाण्डवों की होगी।

श्रीकृष्णमहाराज को साक्षात भगवान के रूप में सबसे पहले भीष्म जी ने ही पहचाना था। धर्मराज के राजसूय यज्ञ में युधिष्ठिर के यह पूछने पर कि ‘अग्रपूजाऽ किसकी होनी चाहिए, भीष्म जी ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि ‘तेज, बल, पराक्रम तथा अन्य सभी गुणों में श्रीकृष्ण ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वप्रथम पूजा पाने योग्य हैं।

महाभारत युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण शस्त्र ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा करके सम्मिलित हुए थे । वे अपनी भक्तवत्सलता के कारण सखा भक्त अर्जुन का रथ हांकने का काम कर रहे थे । बीच ही में एक दिन किसी कारणवश भीष्म ने यह प्रण कर लिया, ‘भगवान को शस्त्र ग्रहण करवा दूंगा।
भीष्म ने यही किया । भगवान को अपनी प्रतिज्ञा तोड़नी पड़ी । जगत्पति पीतांबरधारी वासुदेव श्रीकृष्ण बार बार सिंहनाद करते हुए हाथ में रथ का टूटा चक्का लेकर भीष्म जी की ओर ऐसे दौड़े जैसे वनराज सिंह गरजते हुए विशाल गजराज की ओर दौड़ता है। भगवान का पीला दुपट्टा कंधे से गिर पड़ा। पृथ्वी कांपने लगी। सेना में चारों ओर से ‘भीष्म मारे गयेऽ , ‘भीष्म मारे गयेऽ की आवाज आने लगी, परंतु इस समय भीष्म को जो असीम आनंद था उसका वर्णन करना सामर्थ्य के बाहर की बात है। भगवान की भक्त वत्सलता पर मुग्ध हुए भीष्म उनका स्वागत करते हुए बोले -
अर्थात ‘हे पुण्डरीकाक्ष! आओ, आओ! हे देवदेव!! तुमको मेरा नमस्कार है। तुम्हारे हाथ से युद्ध में मरने पर मेरा अवश्य ही सब प्रकार से परम कल्याण हो जाेंगा। मैं आज त्रैलोक्य में सम्मानित हूं! मुझपर तुम युद्ध में इच्छानुसार प्रहार करो, मैं तुम्हारा दास हूं। अर्जुन ने पीछे से दौड़कर भगवान के पैर पकड़ लिये और उन्हें लौटाया। भगवान तो अपने भक्त की प्रतिज्ञा सत्य करने का दौड़े थे, भीष्म का वध तो अर्जुन के हाथ से ही होना था!

अंत में शिखण्डी के सामने बाण न चलाने के कारण अर्जुन के बाणों से बिंधकर भीष्म शरशय्या पर गिर पड़े । भीष्म वीरोचित शरशय्यापर सोये थे, उनके सारे शरीर में बाण बिंधे थे केवल सिर नीचे लटकता था। उन्होंने तकिया मांगा, दुर्योधनादि नरम नरम तकिया लाने लगे। भीष्म ने अंत में अर्जुन से कहा- ‘वत्स! मेरे योग्य तकिया दो। अर्जुन ने शोक रोककर तीन बाण उनके मस्तक के नीचे इस तरह मारे कि सिर तो ऊंचा उठ गया और वे बाण तकिया का काम देने लगे। इससे भीष्म बड़े प्रसन्न हुए और बोले कि -

अर्थात ‘हे पुत्र अर्जुन! तुमने मेरी रणशय्या के योग्य ही तकिया देकर मुझे प्रसन्न कर लिया। यदि तुम मेरी बात न समझकर दूसरा तकिया देते तो मैं नाराज होकर तुम्हें शाप दे देता। क्षात्र - धर्म में दृढ़ रहने वाले क्षत्रियों को रणांगण में प्राण - त्याग करने के लिए इसी प्रकार की बाणशय्या पर सोना चाहिए।

भीष्म जी शरशय्या पर बाणों से घायल पड़े थे, यह देखकर अनेक कुशल शस्त्रवैद्य बुलाये गये कि वे बाण निकालकर मरहम पट्टी करके घावों को ठीक करें, पर अपने इष्टदेव भगवान श्रीकृष्ण को सामने देखते हुए मृत्यु की प्रतीक्षा में वीरशय्यापर शांति से सोये हुए भीष्म जी ने कुछ भी इलाज न कराकर उन्हें सम्मानपूर्वक लौटा दिया। धन्य वीरता और धन्य धीरता।

जिस प्रकार अटल और दृढ़ होकर भीष्म जी ने आजन्म अपने सत्य, धर्म और प्रतिज्ञा का पालन किया, वह कभी भूलने वाली बात नहीं है। ऐसे अद्वितीय वीर का सम्मान करने के लिए ऋषियों ने नित्य तर्पण में भी भीष्मपितामह के लिए जलांजलि देने का इस प्रकार विधान किया कि - तर्पण में क्षत्रिय ही नहीं, ब्राह्मण भी भीष्मपितामह को जलांजलि देते हैं। वास्तव में यह तर्पण करना भीष्मपितामह की ओर भारत के लोगों का सदा के लिए याद बनाये रखना है।

"शबरी"

"शबरी" जाति की भीलनी का नाम था श्रमणा। यह बाल्यकाल से ही भगवान श्रीराम की भक्ती में लीन रहती थी। पर घरवालों को उसका यह व्यवहार सही न लगता था। पिता ने कुछ समय बाद उसका विवाह कर दिया, पर श्रमणा का पती उसकी इस भक्ती से खुश न था नित्य ताने सुनाता। एक दिन वह पती के घर को त्याग मतंग ऋषि के आश्रम पहुँची। श्रमणा को देखकर चौंक पड़े। श्रमणा से आने का कारण पूछा। उसने बहुत ही नम्र स्वर में अपने आने का कारण बताया। मतंग ऋषि सोच में पड़ गए। 

काफ़ी देर बाद उन्होंने श्रमणा को अपने आश्रम में रहने की अनुमति प्रदान कर दी। श्रमणा अपने व्यवहार और कार्य−कुशलता से शीघ्र ही आश्रमवासियों की प्रिय बन गई। इस बीच जब उसके पति को पता चला कि वह मतंग ऋषि के आश्रम में रह रही है तो वह आग−बबूला हो गया। श्रमणा को आश्रम से उठा लाने के लिए वह अपने कुछ हथियारबंद साथियों को लेकर चल पड़ा। मतंग ऋषि को इसके बारे में पता चल गया। श्रमणा दोबारा उस वातावरण में नहीं जाना चाहती थी। उसने करुण दृष्टि से ऋषि की ओर देखा। ऋषि ने फौरन उसके चारों ओर अग्नि पैदा कर दी। जैसे ही उसका पति आगे बढ़ा, उस आग को देखकर डर गया और वहां से भाग खड़ा हुआ। इस घटना के बाद उसने फिर कभी श्रमणा की तरफ क़दम नहीं बढ़ाया। एक दिन श्रवणा ने ऋषि मतंग से पूछा क्या मेरे प्रभू मुझे दर्शन देंगे तब ऋषि बोले- हाँ वे शीघ्र ही तुमसे मिलने वे यहाँ पधारेंगे। यह सुन श्रवणा खुश होकर झूमने लगी और आश्रम में बाहर की गली को साफ करने लगी नित्य नये पुष्प चुनती और टोकनी में पके बेर एकत्रित करती।दिन गुजरते रहे। 

भगवान श्रीराम सीता की खोज में मतंग ऋषि के आश्रम में जा पहुंचे। मतंग ने उन्हें पहचान लिया। उन्होंने दोनों भाइयों का यथायोग्य सत्कार किया। श्रमणा को बुलाकर कहा, ऽश्रमणा! जिस राम की तुम बचपन से सेवा−पूजा करती आ रही थीं, वही राम आज साक्षात तुम्हारे सामने खड़े हैं। मन भरकर इनकी सेवा कर लो।ऽ श्रमणा भागकर कंद−मूल लेने गई। कुछ क्षण बाद वह लौटी। कंद−मूलों के साथ वह कुछ जंगली बेर भी लाई थी। कंद−मूलों को उसने श्री भगवान के अर्पण कर दिया। पर बेरों को देने का साहस नहीं कर पा रही थी। कहीं बेर ख़राब और खट्टे न निकलें, इस बात का उसे भय था। उसने बेरों को चखना आरंभ कर दिया। अच्छे और मीठे बेर वह बिना किसी संकोच के श्रीराम को देने लगी। श्रीराम उसकी सरलता पर मुग्ध थे। उन्होंने बड़े प्रेम से जूठे बेर खाए। श्रीराम की कृपा से श्रमणा का उद्धार हो गया। वह स्वर्ग गई। यही श्रमणा रामायण में शबरी के नाम से प्रसिद्ध हुई।

बुधवार, 6 मई 2015

भक्त अंबरीष​

राज​ऋषी अंबरीष सूर्य वंशी राजा नाभाग के प्रतापी पुत्र थे। वे बड़े बीर, बुद्धिमान व तपस्वी राजा थे। वे जानते थे कि जिस धन-वैभव के लोभ में पड़कर प्राणी घोर नरक में जाते हैं वह कुछ ही दिनों का सुख है, इसलिए उनका मन सदैव भगवत भक्ति व दीनों की सेवा में लगा रहता था। राजा बाल्यावस्था से ही एकादशी का व्रत बड़ी श्रद्धा से करते, वे भगवान विष्णु के दिव्य भक्तों में से एक माने जाते हैं, भगवान विष्णुजी ने सुदर्श चक्र को राजा अंबरीष की रक्षा हेतु नियुक्त कर दिया। जिस कारण कोई भी शत्रू इनका विरोध या आक्रमण करने का सोचता भी नहीं था, इनक पूरा राज्य भी प्रभू भक्ती में लीन था ।

एक बार अंबरीष ने अपनी पत्नी के साथ निर्जला (भीमसेनी) एकादशी के व्रत का संकल्प लिया, उन्होंने प्रात​: स्नान कर सूर्याघ्य दिया, भगवान विष्णु का पूजन किया और ब्राह्मणों को अन्न-धन का भरपूर दान दिया।तभी वहाँ दुर्वासा ऋषि का आगमन हो गया। वे परम तपस्वी व अलौकिक शक्तियों से युक्त थे किंतु क्रोधी स्वभाव के कारण उनकी सेवा-सुश्रुसा में विशेष सावधानी अपेक्षित थी। ये वही दुर्वासा ऋषी हैं जो एक बार क्षीर सागर भगवान विष्णु के दर्शन के लिए पहुँचे परन्तु जब भगवान विष्णु अपनी पत्नी लक्ष्मीजी द्वारा चरण सेवा में आनंदित थे तब यह देख दुर्वासा ऋषी क्रोधित हो भगवान के वक्ष पर लात मार दिया था ।

राजा अंबरीष को जब यह जानकारी मिली कि आज​ द्वादशी के दिन​ दुर्वासा ऋषी पधारे हैं, तो उनके स्वागत के लिए पहुँचे और उन्हें श्रेष्ठ आसन पर बिठाया। तत्पश्चात दुर्वासा ऋषि की पूजा करके राजाने प्रेमपूर्वक भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया। दुर्वासा ऋषि ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया। किंतु भोजन से पूर्व नित्य संध्या वंदन के लिये वे यमुना नदी के तट पर चले गये। वे परब्रह्म का ध्यान कर यमुना के जल में स्नान करने लगे। 

ऐसा नियम है कि एकादशी का व्रत करने वाले को पूर्ण एकादशी का व्रत रखकर दूसरे दिवस द्वादशी को ही पारण करना चाहिए । परन्तु द्वादशी केवल कुछ ही क्षण शेष रह गयी थी। स्वयं को धर्मसंकट में देख राजा अम्बरीष ब्राह्मणों से परामर्श करते हुए बोले – “मान्यवरों ! ब्राह्मण को बिना भोजन करवाए स्वयं खा लेना और द्वादशी रहते भोजन न करना, दोनों ही मनुष्य को पाप का भागी बनाते हैं। इसलिये इस समय आप मुझे ऐसा उपाय बताएँ, जिससे कि मैं पाप का भागी न बन सकूँ।”

ब्राह्मण बोले – “राजन ! शास्त्रों मे कहा गया है कि पानी भोजन करने के समान है भी और समान नहीं भी । इसलिये इस समय आप जल पी कर द्वादशी का नियम पूर्ण कीजिये।” यह सुनकर अंबरीष ने जल से मात्र आचमन कर संतुष्ट हो दुर्वासा ऋषि की प्रतीक्षा करने लगे । 

जब दुर्वासा ऋषि लौटे तो उन्होंने तपोबल से जान लिया कि अंबरीष व्रत का पारण कर लिया। अत: वे क्रोधित हो उठे और कटु स्वर में बोले – “ दुष्ट अंबरीष ! तू धन के मद में चूर होकर स्वयं को बहुत बड़ा मानता है। तू ने मेरा तिरस्कार किया है। मुझे भोजन का निमंत्रण दिया लेकिन मुझसे पहले स्वयं भोजन कर लिया। अब देख मैं तुझे तेरी दुष्टता का दंड देता हूँ।” 

क्रोधित दुर्वासाजी ने अपनी एक जटा उखाड़ी और अंबरीष को मारने के लिए एक भयंकर और विकराल कृत्या उत्पन्न की। कृत्या तलवार लेकर अंबरीष की ओर बढ़ी किंतु वे बिना विचलित हुए मन ही मन भगवान विष्णु का स्मरण करते रहे। जैसे ही कृत्या ने उनके ऊपर आक्रमण करना चाहा; अंबरीष का रक्षक सुदर्शन चक्र सक्रिय हो गया और पल भर में उसने कृत्या को जलाकर भस्म कर दिया।

जब दुर्वासा ऋषि ने देखा कि चक्र तेजी से उन्हीं की ओर बढ़ रहा है तो वे भयभीत हो गये। अपने प्राणों की रक्षा के लिए वे आकाश, पाताल, पृथ्वी, समुद्र, पर्वत, वन आदि अनेक स्थानों पर शरण लेने गये किंतु सुदर्शन चक्र ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। घबराकर उन्होंने ब्रह्मा जी से रक्षा की गुहार लगायी।

ब्रह्मा जी प्रकट हुए किंतु असमर्थ होकर बोले, “वत्स, भगवान विष्णु द्वारा बनाये गये नियमों से मैं बँधा हुआ हूँ। प्रजापति, इंद्र, सूर्य आदि सभी देवगण भी इन नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकते। हम नारायण की आज्ञा के अनुसार ही सृष्टि के प्राणियों का कल्याण करते हैं। इस प्रकार भगवान विष्णु के भक्त के शत्रु की रक्षा करना हमारे वश में नहीं है।”

ब्रह्माजी की बातों से निराश होकर दुर्वासा ऋषि भगवान शंकर की शरण में गये। पूरा वृत्तांत सुनने के बाद महादेव जी ने उन्हें समझाया, “ऋषिवर! यह सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु का शस्त्र है जो उनके भक्तजन की रक्षा करता है। इसका तेज सभी के लिए असहनीय है। अतः उचित होगा कि आप स्वयं भगवान विष्णु की शरण में जाएँ। केवल वे ही इस दिव्य शस्त्र से आपकी रक्षा कर सकते हैं और आपका मंगल हो सकता है।”

वहाँ से भी निराश होकर दुर्वासा ऋषि भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे और उनके चरणों में सिर नवाकर दया की गुहार लगायी। आर्त स्वर में दुर्वासा बोले, “भगवन मैं आपका अपराधी हूँ। आपके प्रभाव से अनभिज्ञ होकर मैंने आपके परम भक्त राजा अंबरीष को मारने का प्रयास किया। हे दयानिधि, कृपा करके मेरी इस धृष्टता को क्षमा कर मेरे प्राणों की रक्षा कीजिए।”

भगवान नारायण ने दुर्वासा ऋषि को उठाया और समझाया, “मुनिवर ! मैं सर्वदा भक्तों के अधीन हूँ। मेरे सीधे-सादे भक्तों ने अपने प्रेमपाश में मुझे बाँध रखा है। भक्तों का एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ। अतः मैं स्वयं अपने व देवी लक्ष्मी से भी बढ़कर अपने भक्तों को चाहता हूँ। जो भक्त अपने बंधु-बांधव और समस्त भोग-विलास त्यागकर मेरी शरण में आ गये हैं उन्हें किसी प्रकार छोड़ने का विचार मैं कदापि नहीं कर सकता। यदि आप इस विपत्ति से बचना चाहते हैं तो मेरे परम भक्त अंबरीष के पास ही जाइए। उसके प्रसन्न होने पर आपकी कठिनाई अवश्य दूर हो जाएगी।”

नारायण की सलाह पाकर दुर्वासा अंबरीष के पास पहुँचे और अपने अपराध के लिए क्षमा माँगने लगे। परम तपस्वी महर्षि दुर्वासा की यह दुर्दशा देखकर अंबरीष को अत्यंत दुख हुआ। उन्होंने सुदर्शन चक्र की स्तुति की और प्रार्थना पूर्वक आग्रह किया कि वह अब लौट जाय। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर सुदर्शन चक्र ने अपनी दिशा बदल ली और दुर्वासा ऋषि को भयमुक्त कर दिया।

जबसे दुर्वासा ऋषि वहाँ से गये थे तबसे राजा अम्बरीष ने भोजन ग्रहण नहीं किया था। वे ऋषि को भोजन कराने की प्रतीक्षा करते रहे। उनके लौटकर आ जाने व भयमुक्त हो जाने के बाद अम्बरीष ने सबसे पहले उन्हें आदर पूर्वक बैठाकर उनकी विधि सहित पूजा की और प्रेम पूर्वक भोजन कराया। राजा के इस व्यवहार से ऋषि दुर्वासा अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें अनेकशः आशीर्वाद देकर वहाँ से विदा लिये।