"शबरी" जाति की भीलनी का नाम था श्रमणा। यह बाल्यकाल से ही भगवान श्रीराम की भक्ती में लीन रहती थी। पर घरवालों को उसका यह व्यवहार सही न लगता था। पिता ने कुछ समय बाद उसका विवाह कर दिया, पर श्रमणा का पती उसकी इस भक्ती से खुश न था नित्य ताने सुनाता। एक दिन वह पती के घर को त्याग मतंग ऋषि के आश्रम पहुँची। श्रमणा को देखकर चौंक पड़े। श्रमणा से आने का कारण पूछा। उसने बहुत ही नम्र स्वर में अपने आने का कारण बताया। मतंग ऋषि सोच में पड़ गए।
काफ़ी देर बाद उन्होंने श्रमणा को अपने आश्रम में रहने की अनुमति प्रदान कर दी। श्रमणा अपने व्यवहार और कार्य−कुशलता से शीघ्र ही आश्रमवासियों की प्रिय बन गई। इस बीच जब उसके पति को पता चला कि वह मतंग ऋषि के आश्रम में रह रही है तो वह आग−बबूला हो गया। श्रमणा को आश्रम से उठा लाने के लिए वह अपने कुछ हथियारबंद साथियों को लेकर चल पड़ा। मतंग ऋषि को इसके बारे में पता चल गया। श्रमणा दोबारा उस वातावरण में नहीं जाना चाहती थी। उसने करुण दृष्टि से ऋषि की ओर देखा। ऋषि ने फौरन उसके चारों ओर अग्नि पैदा कर दी। जैसे ही उसका पति आगे बढ़ा, उस आग को देखकर डर गया और वहां से भाग खड़ा हुआ। इस घटना के बाद उसने फिर कभी श्रमणा की तरफ क़दम नहीं बढ़ाया। एक दिन श्रवणा ने ऋषि मतंग से पूछा क्या मेरे प्रभू मुझे दर्शन देंगे तब ऋषि बोले- हाँ वे शीघ्र ही तुमसे मिलने वे यहाँ पधारेंगे। यह सुन श्रवणा खुश होकर झूमने लगी और आश्रम में बाहर की गली को साफ करने लगी नित्य नये पुष्प चुनती और टोकनी में पके बेर एकत्रित करती।दिन गुजरते रहे।
भगवान श्रीराम सीता की खोज में मतंग ऋषि के आश्रम में जा पहुंचे। मतंग ने उन्हें पहचान लिया। उन्होंने दोनों भाइयों का यथायोग्य सत्कार किया। श्रमणा को बुलाकर कहा, ऽश्रमणा! जिस राम की तुम बचपन से सेवा−पूजा करती आ रही थीं, वही राम आज साक्षात तुम्हारे सामने खड़े हैं। मन भरकर इनकी सेवा कर लो।ऽ श्रमणा भागकर कंद−मूल लेने गई। कुछ क्षण बाद वह लौटी। कंद−मूलों के साथ वह कुछ जंगली बेर भी लाई थी। कंद−मूलों को उसने श्री भगवान के अर्पण कर दिया। पर बेरों को देने का साहस नहीं कर पा रही थी। कहीं बेर ख़राब और खट्टे न निकलें, इस बात का उसे भय था। उसने बेरों को चखना आरंभ कर दिया। अच्छे और मीठे बेर वह बिना किसी संकोच के श्रीराम को देने लगी। श्रीराम उसकी सरलता पर मुग्ध थे। उन्होंने बड़े प्रेम से जूठे बेर खाए। श्रीराम की कृपा से श्रमणा का उद्धार हो गया। वह स्वर्ग गई। यही श्रमणा रामायण में शबरी के नाम से प्रसिद्ध हुई।
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